कहानी - मां का दिल महान


‘‘मां कहां हैं?’’ शायक ने अपनी पत्नी शुचि से प्रश्न किया.

‘‘क्या पता? मैं जब आई तब भी मां घर में नहीं थीं. एक घंटे से प्रतीक्षा कर रही हूं कि वे आ जाएं तो मैं भी चाय पी लूं,’’ शुचि ने उत्तर दिया.

‘‘तुम्हें अपनी चाय की चिंता है, मां की नहीं. वैसे भी तुम्हें चाय पीने से किस ने रोका है. चाय पी कर मां को बुला लातीं. इसी अपार्टमैंट के कौंप्लैक्स में होंगी. इस बिल्डिंग से बाहर तो वे जाती ही नहीं,’’ शायक क्रोधित हो उठा था.

‘‘तुम्हारी मां हैं, तुम्हीं बुला लाओ. मुझे तो तुम मांबेटे से बहुत डर लगता है. क्या पता किस बात पर भड़क जाओ. पहले हाथमुंह धो लो, मैं तुम्हारे लिए जूस ले आती हूं. अपने लिए चाय बना लूं क्या?’’ शुचि मुसकराई

‘‘तुम और तुम्हारी चाय. पिओ न, किस ने मना किया है? मैं पहले ही परेशान और थका हुआ हूं,’’ शायक अपना लैपटौप एक ओर पटकते हुए बोला.

‘‘क्यों गुस्सा हो रहे हो, संभाल कर रखो. लैपटौप टूट जाएगा. कंपनी का दिया हुआ है. इतनी लापरवाही ठीक नहीं है,’’ शुचि रसोई की ओर जाते हुए हंसी.

‘‘तुम्हें हर समय मजाक सूझता है,’’ शायक झुंझला गया.

‘‘तो मैं कहां मजाक कर रही हूं? वैसे मैं एक सुझाव दूं. तुम लंबी छुट्टी क्यों नहीं ले लेते? मां भी प्रसन्न हो जाएंगी कि उन का बेटा श्रवण कुमार उन के लिए कितना त्याग कर रहा है,’’ शुचि चाय की चुस्कियों का आनंद लेते हुए बोली.

‘‘मुझे व्यर्थ का क्रोध मत दिलाओ. तुम क्यों नहीं छोड़ देतीं अपनी नौकरी?’’

‘‘मैं तो तैयार हूं. तुम ने इधर आज्ञा दी और उधर मेरा त्यागपत्र मेरे बौस की मेज पर. तुम ही कहते हो, महंगाई बहुत बढ़ गई है. एक के वेतन से काम नहीं चलता. सच पूछो तो मैं अपने बच्चों को छात्रावास से घर लाना चाहती हूं. मन में बहुत अपराधबोध होता है. बच्चे पलक झपकते ही बड़े हो जाएंगे और हम तरसते रह जाएंगे,’’ शुचि एकाएक गंभीर हो उठी.

‘‘अरे हां, यह बात तो मेरे दिमाग में आई ही नहीं. अब तो मां भी यहां हैं, उन्हें भी कंपनी मिल जाएगी. बच्चों को उन का मार्गदर्शन मिल जाएगा,’’ शायक ने कुछ सोच कर कहा.

‘‘मैं ने सोचा था, पर मुझे लगा कि कहीं मांजी को बुरा न लगे कि उन के आते ही बच्चों की जिम्मेदारी उन के कंधों पर डाल दी.’’

पतिपत्नी में अभी वार्त्तालाप चल ही रहा था कि कामिनी ने घर में प्रवेश किया.

‘‘मां, कहां चली गई थीं आप? मुझे कितनी चिंता हो जाती है,’’ उन्हें देखते ही शायक ने शिकायत की.

‘‘लो, इस में भला चिंता की क्या बात है. मैं क्या छोटी बच्ची हूं जो कहीं गुम हो जाऊंगी? घर से निकल कर जरा पासपड़ोस में घूम आती हूं तो मेरा भी मन बहल जाता है, उन की भी सहायता हो जाती है. सच कहूं, बड़ा संतोष होता है कि यह जीवन किसी के काम आ रहा है,’’ कामिनी बड़े संतोष से बोलीं.

‘‘पर मां, सुजाताजी तो अब ठीक हो गई हैं. और कितने दिनों तक उन की तीमारदारी में लगी रहोगी?’’

‘‘आज मैं उन के यहां थोड़े ही गई थी. आज तो मुझे तीसरे माले वाली रम्या बुला ले गई थी. परसों उस के बेटे का जन्मदिन है. मुझ से अनुनय करने लगी कि मैं उस की सहायता कर दूं.’’

‘‘और आप का कोमल दिल पिघल गया. आप तुरंत उन की सहायता करने को तैयार हो गईं,’’ शायक व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला.

‘‘हां, मेरा तो मन पसीज गया. आजकल की इन लड़कियों को घर का कामकाज तो कोई सिखाता नहीं है,’’ कामिनी शायक की बात पर ध्यान दिए बिना बोलीं.

‘‘तो आज से ही कल की तैयारी प्रारंभ हो गई? क्याक्या पकाया आज?’’ शायक ने प्रश्न किया.

‘‘बूंदी के लड्डू बनाए आज. वह तो बालूशाही भी बनाने के लिए कह रही थी पर मैं ने कह दिया कि बाकी काम कल करेंगे. अभी मेरा बेटा घर आ गया होगा और मेरे बारे में पूछ रहा होगा. बूंदी के लड्डू इतने अच्छे बने हैं जैसे हलवाई की दुकान से लाए गए हों,’’ कामिनी ने मानो राज की बात बताई.

‘‘आप ने बनाए हैं तो अच्छे ही बने होंगे. पाककला में तो आप की बराबरी बड़ेबड़े हलवाई भी नहीं कर सकते. थक गई होंगी आप. लीजिए, चाय पी लीजिए,’’ तभी शुचि चाय ले आई.

‘‘तेरी बात भी ठीक है, बेटी. चाय पीने का तो बहुत मन हो रहा था,’’ कामिनी ने चाय पीते हुए कहा.

‘‘लो, आप की रम्या बेटी ने चाय भी नहीं पिलाई क्या?’’ शायक ने फिर प्रश्न किया.

‘‘मां से उपहास करता है रे. उस बेचारी ने तो कई बार पूछा पर मैं ने ही मना कर दिया,’’ वे हंसीं.

‘‘अच्छा किया, मां. बहुत खराब चाय बनाती हैं वे. हम ने तो इसी डर से उन के यहां जाना ही छोड़ दिया,’’ शायक हंस दिया.

‘‘अच्छा, सच कह रहा है तू? कैसा जमाना आ गया है. 2 बच्चों की मां को चाय तक बनानी नहीं आती? घर में खाना कैसे बनाती होगी?’’

‘‘मैं आप से झूठ क्यों कहूंगा? खाना तो उन की नौकरानी बनाती है. जो कच्चापक्का बनाती है, खाना पड़ता है. पर वैसे वे बहुत होशियार हैं,’’ शायक नाटकीय स्वर में बोला.

‘‘अच्छा, मैं भी तो सुनूं उन की होशियारी के किस्से.’’

‘‘लो, अब भी आप को प्रमाण चाहिए. मेरी प्यारी मां. आजकल के स्वार्थी समाज में जहां कोई किसी को बेमतलब एक गिलास पानी को भी नहीं पूछता, वहां वे आप से जन्मदिन पार्टी के लिए सारे पकवान कितनी होशियारी से बनवा रही हैं, यह कम होशियारी है क्या?’’ न चाहते हुए भी शायक के स्वर में क्रोध झलक गया.

‘‘क्या कह रहा है, बेटे? ऐसी बात तेरे मन में आई भी कैसे. मैं क्या छोटी बच्ची हूं जो कोई बरगला ले? पड़ोसी एकदूसरे के काम आते ही हैं. तू तो मेरी आदत जानता है. महल्ले में किसी को भी कोई आवश्यकता पड़ती थी तो मैं अपना काम छोड़ कर उस की सहायता को दौड़ जाती थी. बदले में मुझे उन सब का जो सहयोग मिला उसे भी तुम भली प्रकार जानते हो,’’ कामिनी ने अपना पक्ष रखा.

‘‘सौरी मां, मैं यह सब कह कर आप को दुखी नहीं करना चाहता था पर यहां के लोगों की मानसिकता अलग सी है. दूसरों को नीचा दिखाने में ही वे अपनी शान समझते हैं. हर चीज को लाभहानि के तराजू पर तौलते हैं ये लोग. सुजाताजी बीमार थीं, आप उन की मदद करना चाहती थीं, मैं ने कुछ नहीं कहा. पर रम्या का व्यवहार मुझे जंचा नहीं,’’ शायक बोलता रहा और कामिनी उसे अपलक निहारती रहीं.

‘‘क्या बात है, शायक? तुझे पासपड़ोस में मेरा मेलजोल बढ़ाना शायद अच्छा नहीं लगा?’’ वे पूछ बैठीं.

‘‘नहीं मां, बस डरता हूं कि कहीं कुछ अशोभनीय न घट जाए. शायद अकेलापन खल रहा है आप को. मैं आप का पक्ष भी समझता हूं. बस, आप को सावधान कर देना चाहता हूं.’’

‘‘ठीक है, तुझे बुरा लगता है तो आगे से खयाल रखूंगी. अब यह भी बता दे कि कल रम्या के यहां जाऊं या नहीं? क्या पता मेरे जाने से तुम लोगों की नाक नीची हो जाए,’’ कामिनी का गला भर्रा गया.

‘‘आप को बुरा लगा है तो माफ कर दो, मां. पर सच कहूं, जब कोई मेरी मां का अनुचित लाभ उठाता है तो मेरा खून खौल जाता है,’’ शायक स्वयं पर संयम नहीं रख सका.

‘‘क्यों, जरा सी बात पर घर सिर पर उठा रखा है. मां थक गई होंगी. उन्हें तरोताजा हो जाने दो,’’ शुचि ने बीचबचाव किया. फिर जरा सा एकांत पाते ही बोली, ‘‘क्यों व्यर्थ में बात का बतंगड़ बनाते हो. मां को अच्छा लगता है दूसरों की मदद करना तो हम कौन होते हैं उन्हें रोकने वाले.’’

‘‘मां नहीं जानतीं पर तुम तो रम्या को भली प्रकार जानती हो. लोगों को शीशे में उतार कर अपना काम निकलवाने में तो उन की बराबरी कोई कर ही नहीं सकता. पर वह मेरी मां को निशाना बनाए, यह मैं सहन नहीं करूंगा.’’

‘‘तुम चिंता मत करो, शायक. कोई न कोई राह निकल ही आएगी. पर इस के लिए हम मां को दुख तो नहीं पहुंचा सकते.’’

शायक कसमसा कर रह गया. उस का बस चलता तो वह कुछ अप्रत्याशित कर बैठता पर उस ने चुप रहना ही ठीक समझा.

इस बहस से कामिनी भी आहत हुई थीं पर रम्या से वादा कर दिया था इसलिए उस की सहायता को चली गई. आज उस की गतिविधियों पर उन की पैनी नजर थी. शीघ्र ही उन्हें आभास हो गया कि शायक उन से अधिक समझदार है. रम्या को केवल उन की सहायता नहीं चाहिए थी वह तो सारा काम उन्हीं से करवा रही थी. वह बड़ी होशियारी से उन की प्रशंसा के पुल बांधे जा रही थी. मानो इसी तरह उन्हें बरगला लेगी.

‘‘बालूशाही तो लाजवाब बनी हैं, दहीबड़े और बना दीजिए. आप के हाथों में तो जादू है,’’ बालूशाही बनते ही रम्या ने आगे का कार्यक्रम तैयार कर दिया.

‘‘रम्या बेटी, थक गई हूं. सुबह से काम कर रही हूं. एक कप चाय तो पिला,’’ कामिनी हंसीं.

‘‘पिलाऊंगी, चाय भी पिलाऊंगी. पहले काम तो समाप्त हो जाने दीजिए.’’

रम्या का उत्तर सुन कर दंग रह गईं कामिनी. वे उठ खड़ी हुईं.

‘‘अरे, जा कहां रही हैं आप? काम हो जाने के बाद चाय पी कर चली जाइएगा.’’

‘‘थोड़ी देर आराम कर के आऊंगी, बेटे. बैठेबैठे कमर में दर्द होने लगा है.’’

‘‘इतने नखरे क्यों दिखा रही हैं आप? पैसे दूंगी. मैं किसी से मुफ्त में काम नहीं करवाती,’’ रम्या बदतमीजी से बोली.

कामिनी अविश्वास से घूरती रह गईं. न आंखों पर विश्वास हुआ न कानों पर. रम्या ने उस के बाद क्या कहा, वे सुन नहीं सकीं. चुपचाप उस के अपार्टमैंट से बाहर निकल आईं. पर वे अपने फ्लैट तक पहुंच पातीं, इस से पहले ही सुजाताजी मिल गईं.

‘‘मैं तो आप के यहां ही गई थी पर आप के यहां ताला पड़ा था,’’ वे उन्हें देखते ही बोलीं.

‘‘मेरे पास घर की एक चाभी हुआ करती है, इसलिए चिंता की बात नहीं है. चलिए न, मैं तो घर ही जा रही थी,’’ कामिनी बोलीं.

सुजाता कामिनी के साथ चली आईं.

‘‘आइए न, बैठिए. मैं अभी आई,’’ कामिनी ने सोफे की ओर इशारा किया.

‘‘मैं बैठने नहीं आई. आप का हिसाब करने आई हूं.’’

‘‘हिसाब? कैसा हिसाब?’’

‘‘आप ने 4-5 दिनों तक मेरी सेवा की, उसी का हिसाब,’’ उन्होंने 500 का नोट दिखाते हुए कहा.

‘‘क्या कह रही हैं आप? मैं ने पैसों के लिए आप की सेवा की थी क्या?’’

‘‘अरे तो इस में शरमाने की कौन सी बात है. आजकल के बच्चे ऐसे ही हैं. कितना भी कमाते हों पर मातापिता पर कुछ भी खर्च करने से कतराते हैं,’’ सुजाता नाटकीय स्वर में बोलीं, ‘‘मैं क्या समझती नहीं. कोई बिना मतलब किसी की सहायता क्यों करने लगा? अपने मुंह से कहना आवश्यक थोड़े ही है. 500 रुपए कम हैं क्या? 100 रुपए और ले लीजिए.’’

‘‘बस कीजिए, मैं कुछ कह नहीं रही तो आप जो मन में आए कहे जा रही हैं. आप बीमार थीं, कोई देखभाल करने वाला नहीं था. मानवता के कारण आप की देखभाल कर दी तो आप मुझे अपमानित करने चली आईं,’’ कामिनी क्रोधित हो उठीं.

‘‘लो, भलाई का तो जमाना ही नहीं रहा. मैं तो आप की सहायता करना चाह रही थी. रम्या से आप की सिफारिश मैं ने ही की थी. कल आप वहां भी लड्डू बना कर आई थीं. अब भी तो वहीं से आ रही थीं आप?’’

‘‘मैं क्या आप को घरघर जा कर काम करने वाली लगती हूं? शरम नहीं आती आप को? आप जैसों को खरीदने की हैसियत है मेरी. निकल जाइए यहां से. मुझे नहीं पता था कि यहां के लोग मानवता की भाषा भी नहीं समझते,’’ वे अपने स्वभाव के विपरीत चीख उठीं.

‘‘लो, मैं ने ऐसा क्या कह दिया, इस तरह आपा क्यों खो रही हैं आप?’’ सुजाता ने कामिनी के घर से निकलते हुए कहा.

उन के जाते ही कामिनी कटे वृक्ष की भांति कुरसी पर गिर गईं. उठ कर चाय बनाने की भी हिम्मत नहीं हुई. वहीं बैठेबैठे सो गई थीं. जब द्वार की घंटी बजी, द्वार खोला तो सामने शुचि खड़ी थी. ‘‘अंदर आओ न,’’ उसे वहीं खड़े देख कर वे बोलीं. तभी समवेत खिलखिलाहट का स्वर गूंजा.

‘‘अरे कौन है? शुचि, आज क्या आर्यन और अदिति को घर ले आई है?’’

‘‘हां दादी. हम दोनों आ गए हैं ऊधम मचा कर आप को सताने. मां कह रही थीं आप का अकेले मन नहीं लग रहा है.’’

मां के पीछे खड़े दोनों बच्चे उन के सामने आ खड़े हुए.

‘‘हां रे, मैं तो वापस जाने की सोच रही थी.’’

‘‘दादी, आप यहां आ जाओ तो हम छात्रावास छोड़ कर घर में रहने लगें.’’

‘‘पहले क्यों नहीं कहा? अपने घर को किराए पर दे कर यहीं आ जाती.’’

‘‘तो अब आ जाओ न, दादीमां,’’ दोनों उन के गले लग कर झूल गए.

उन की निश्छल हंसी के बीच उन का मन नहीं हुआ कि वे शुचि को अपने कड़वे अनुभवों के बारे में बताएं. पर बताना तो पड़ेगा ही. इतनी बड़ी बात को वे छिपा भी तो नहीं सकतीं, विशेष रूप से अपने बेटे शायक से.

शीघ्र ही शुचि चाय बना लाई और स्वयं वहीं बैठ कर चाय की चुस्कियां लेने लगी.

‘‘मां, हमें भी भूख लगी है,’’ आर्यन और अदिति ने दोनों को चाय पीते देख शोर मचाया.

‘‘धीरज रखो, थक गई हूं. मांजी भी सुबह से अकेले बैठी हैं. चाय तो पीने दो,’’ शुचि ने दोनों को डपटा.

‘‘तुम कह कर जातीं तो मैं दोनों के लिए गरम नाश्ता बना कर रखती. पर तुम ने बताया ही नहीं. तुम दोनों तो कुछ खाते ही नहीं, तलाभुना खाने से वजन जो बढ़ जाता है,’’ कामिनी ने शिकायत की.

‘‘मुझे भी कहां पता था मां? औफिस में अदिति का फोन आया कि स्कूल

3 दिनों के लिए बंद हो रहा है. एनसीसी का कैंप है. मैं जा कर ले आई. छात्रावास में रहने से तो अच्छा है 3 दिनों तक घर में रहेंगे हम सब के साथ. आज मैं बनाती हूं कुछ गरमागरम आप सब के लिए. आप तो दिनभर रम्या की सहायता कर के थक गई होंगी,’’ शुचि चाय समाप्त होते ही उठ खड़ी हुई.

‘‘रम्या आंटी की सहायता, पर क्यों? उन्हें दादी की सहायता की क्या आवश्यकता पड़ गई?’’ अदिति बोली.

‘‘पलक का जन्मदिन है. मांजी उसी के लिए रम्या की सहायता कर रही हैं,’’ शुचि ने समझाया.

‘‘अच्छा, रम्या के बेटे का नाम पलक है? लो भला मुझे तो यह भी पता नहीं. न मैं ने पूछा न रम्या ने बताया. मैं ने तो उसे देखा तक नहीं है. वह भी क्या तुम दोनों की तरह छात्रावास में ही रहता है?’’ कामिनी ने प्रश्न किया.

‘‘रहता तो घर में ही है पर सुबहशाम ट्यूशन में व्यस्त रहता है, इसीलिए आप से भेंट नहीं हुई होगी. सुबह 6 बजे घर से निकलता है तो शाम के 8 बजे घुसता है,’’ शुचि ने बताया.

‘‘यह लो, आजकल के मातापिता अपने ही बच्चों पर कितना अत्याचार करते हैं. हमारे बच्चे तो घंटों अपने मित्रों के साथ खेलते थे. पर आजकल तो पढ़ाई के बोझ तले पिसे जा रहे हैं.’’

‘‘पढ़ाईलिखाई से जो समय बचता है वह कंप्यूटर और टीवी की भेंट चढ़ जाता है. जीवन बहुत उलझ गया है, मां,’’ शुचि हंसी.

‘‘ठीक कहती हो तुम. जीवन केवल उलझा ही नहीं है, बहुत आगे निकल भी गया है. हम जैसे वृद्ध बहुत पीछे छूट गए हैं.’’

कामिनी का उदास स्वर सुन कर चौंक गई शुचि.

‘‘क्या हुआ, मां? तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ उस ने पूछा.

कामिनी सबकुछ कह कर मन हलका करना चाहती थीं पर चुप रह गईं. वे जानती थीं कि शायक को पता चला तो हंगामा हो जाएगा. अपने बेटे के स्वभाव से वे भलीभांति परिचित थीं. यह तो अच्छा हुआ कि शुचि उन के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना रसोई में व्यस्त हो गई थी और वे अदिति और आर्यन के साथ बातों में व्यस्त हो गईं.

कुछ ही देर में शुचि ने पुकारा तो सब खाने की मेज पर जा कर डट गए.

‘‘तुम्हारी मम्मी ने तो जरा सी देर में कितनाकुछ बना डाला,’’ कामिनी ने गरमागरम नाश्ते की प्रशंसा करते हुए कहा.

‘‘क्यों शर्मिंदा करती हैं, मांजी. अभी तो बस पकौड़े बनाए हैं, बाकी सब तो आते हुए खरीद लाई थी,’’ शुचि मुसकराई.

कामिनी भी मुसकरा दीं. अदिति और आर्यन के आने से बड़ी रौनक हो गई थी. वे रम्या और सुजाता प्रकरण को लगभग भूल ही चली थीं कि अचानक द्वार की घंटी बजी. शुचि ने द्वार खोला तो सामने रम्या और उस के पति सुहास खड़े थे.

‘‘आइए, आज तो सूरज अवश्य ही पश्चिम से निकला होगा,’’ शुचि ने उन का स्वागत करते हुए कहा.

‘‘मुझे पता था तुम यही कहोगी. तुम कामकाजी महिलाओं के पास तो सदा एक ही बहाना रहता है, समय की कमी का. पर हम गृहिणियां भी कम व्यस्त नहीं रहतीं.’’

‘‘मैं इस बहस में पड़ना ही नहीं चाहती. कौन अधिक व्यस्त रहता है, इस बात पर तो घंटों बहस हो सकती है. आओ, बैठो,’’ शुचि मुसकराई.

‘‘बैठने का समय भला किस के पास है? हम तो तुम सब को आमंत्रित करने आए हैं. कल पलक का जन्मदिन है न. तुम सब आना. मांजी को भी ले कर आना,’’ सुहास ने आग्रह किया.

‘‘मांजी तो यों भी आएंगी मेरा हाथ बंटाने, आएंगी न आंटी?’’ रम्या बड़ी अदा से बोली.

‘‘नहीं बेटी, मैं नहीं आ सकूंगी. आज तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है.’’

‘‘ओह, मैं तो आप के भरोसे बैठी थी. हो सके तो कल थोड़ी देर के लिए ही सही पर आ जाइएगा.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो, रम्या. मां ने कह दिया न उन की तबीयत ठीक नहीं है. फिर क्यों जोर डाल रही हो?’’ शुचि ने नाराजगी दिखाई.

‘‘चलो ठीक है, मैं किसी प्रकार काम चला लूंगी. अरे वाह, आज तो अदिति और आर्यन भी आए हुए हैं. तुम दोनों को देख कर पलक भी बहुत खुश होगा,’’ रम्या ने बात पलटते हुए कहा.

‘‘क्या हुआ, मां? रम्या ने कुछ कहा था क्या?’’ शुचि ने थोड़ा सा एकांत पाते ही पूछ लिया.

‘‘बहुत बदतमीजी से पेश आई थी मुझ से. आज तक किसी ने इस तरह बात नहीं की,’’ कामिनी की आंखें भर आईं. उन्होंने शुचि को पूरा प्रकरण कह सुनाया.

‘‘मैं तो आज आप को देखते ही समझ गई थी कि कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है. पर आप चिंता मत करिए. मैं भी उसे ऐसा मजा चखाऊंगी कि वह याद रखेगी. आप शायक से कुछ मत कहिएगा वरना वे व्यर्थ ही भड़क उठेंगे.’’

अगले दिन नाश्ता करने के बाद शुचि रम्या के घर जा पहुंची. द्वार खोलते ही उसे देख कर चौंक गई थी रम्या.

‘‘मांजी की तो तबीयत ठीक नहीं है. मैं ने सोचा मैं ही तुम्हारी सहायता कर दूं,’’ शुचि सोफे पर पसरते हुए लापरवाही से बोली.

‘‘क्या कह रही हो, तुम? आज औफिस नहीं जाना क्या?’’ रम्या चौंक कर बोली.

‘‘आज छुट्टी ले ली है मैं ने. पड़ोसियों के लिए इतना त्याग तो करना ही पड़ता है. सोचा, पहले तुम्हारा हाथ बंटा दूं, उस के बाद हम सब का घूमने जाने का कार्यक्रम है. चलो बताओ, क्या करना है? मेरे पास अधिक समय नहीं है,’’ शुचि बोली.

‘‘काम तो बहुत सारा है. दहीबड़े बनाने हैं. खट्टीमीठी दोनों तरह की चटनी बनानी हैं. कचौड़ी बनाने की तैयारी भी करनी है. तुम्हें आता है ये सब?’’

‘‘पहले ही कहे देती हूं. मांजी की तरह कुशल नहीं हूं मैं. वैसे भी थोड़ा जल्दी थक जाती हूं.’’

‘‘तुम चिंता मत करो, मैं सब संभाल लूंगी.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो? पड़ोसी धर्म भी कोई चीज होती है. पर पहले थोड़ी चाय तो बनाओ. क्या है न, बिना पैट्रोल के गाड़ी चलती नहीं है,’’ शुचि बेबाकी से हंस दी.

‘‘अभी बना देती हूं. हम दोनों ने भी चाय कहां पी है. पलक को ट्यूशन के लिए भेज कर अभी जरा सा समय मिला है. अभी तक सुषमा भी नहीं आई है. हर रोज तो 7 बजे तक आ जाती थी,’’ रम्या चाय बनाने की तैयारी करते हुए बोली.

‘‘इन कामवालियों के संबंध में तो कुछ न कहना ही अच्छा है. इन्हें कुछ भी दो पर इन का मुंह तो कभी सीधा होता ही नहीं,’’ रम्या अब भी केवल अपनी कामवाली सुषमा को कोस रही थी.

‘‘तो काम शुरू करें,’’ चाय के कप उठाते हुए रम्या बोली.

‘‘अवश्य, पर यह तो बताओ कि तुम मुझे दोगी क्या?’’ शुचि पूछ बैठी.

कुछ देर के लिए तो मानो कक्ष की हवा थम सी गई और शुचि का प्रश्न दीवारों से टकरा कर लौट आया.

‘‘क्या कह रही हो तुम? ऐसी बात भला तुम सोच भी कैसे सकती हो?’’

‘‘कमाल है, आज तुम्हें यह बात बड़ी विचित्र लग रही है. पर कल तो तुम ने यही बात मेरी मांजी से कही थी. तुम तो किसी से बिना पारिश्रमिक दिए काम करवाती ही नहीं हो. है न?’’ शुचि ने व्यंग्य किया.

‘‘वह तो मैं ने यों ही कह दिया था. म...म...मुझे लगा, मांजी खुश हो जाएंगी,’’ रम्या न चाहते हुए भी हकला गई.

‘‘मुझे भी खुश कर दो न. क्या है न, घर में खाने को नहीं है, तुम कुछ दे दोगी तो काम चल जाएगा,’’ शुचि अब भी क्रोध में थी.

‘‘तुम तो व्यर्थ ही बात का बतंगड़ बना रही हो. तुम इन वृद्धों की मानसिकता को समझती नहीं हो. यह कोई भी कार्य कुछ पाने की आशा से ही करते हैं,’’ रम्या अपनी ही बात पर अड़ी थी.

‘‘तुम्हारे विचार जान कर प्रसन्नता हुई. पर इन्हें अपने पास ही रखो. मांजी को बहुत बुरा लगा है, यह तो तुम समझ ही गई होंगी. मैं तो तुम्हें केवल यह बताने आई थी, भविष्य में तुम ने उन्हें अपमानित करने का प्रयत्न किया तो पता नहीं शायक क्या कर बैठें. अभी तो हम ने यह बात उन से छिपा कर रखी है,’’ तीखे स्वर में बोल कर शुचि बाहर निकल गई. रम्या सामने रखी ठंडी होती चाय को देखती रही.

‘‘स्वयं ही चाय बनवाई और छोड़ कर चली गईं. तुम तो अपनी चाय पी लो,’’ सुहास बोला.

‘‘वह मुझे इतना कुछ सुना कर चली गई और तुम चुप बैठे देखते रहे,’’ रम्या सुहास पर ही बरस पड़ी.

‘‘तुम क्या चाहती थीं मैं ढालतलवार ले कर मैदान में कूद पड़ता?’’

‘‘वह तो कोई विरला ही दिन होगा. पर मैं भी चुप नहीं बैठूंगी. ऐसा मजा चखाऊंगी कि शुचि याद रखेगी.’’

‘‘होश की बात करो, रम्या. स्वीकार कर लो कि भूल तुम्हारी थी. तुम ने कामिनी आंटी का अपमान किया है. जा कर क्षमा मांग लो और बात को यहीं समाप्त कर दो. तुम नहीं जाना चाहतीं तो मुझ से कहो, मैं क्षमा मांग लूंगा. वे बड़ी हैं, हमारी मां की आयु की हैं, क्षमा मांगने से हम छोटे नहीं हो जाएंगे. सोचता हूं तो मुझे भी आश्चर्य हो रहा है कि तुम ने उन से ऐसा व्यवहार किया. तुम्हें शायद पता नहीं है कि शायक के पिता रंगपुर के जानेमाने चिकित्सक थे.’’

कुछ देर के लिए रम्या चित्रलिखित सी बैठी रही. बात इतनी बढ़ जाएगी, यह तो उस ने सोचा ही नहीं था. पर अब कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा. अदिति और आर्यन पलक की जन्मदिन पार्टी में नहीं आए तो पलक को कितना बुरा लगेगा.

रम्या चुपचाप शुचि के घर की तरफ चल पड़ी. शुचि ने द्वार खोला तो सामने रम्या को खड़े देख कर हैरान रह गई.

‘‘मांजी, कहां हैं आप? शुचि बता रही थी कि आप नाराज हैं,’’ रम्या उन के पास बैठते हुए बोली, ‘‘मेरा इरादा आप का अपमान करने का नहीं था, न ही मैं आप को दुख पहुंचाना चाहती थी. पता नहीं कैसे वह सब मेरे मुंह से निकल गया. भूल हो गई, क्षमा कर दीजिए.’’

‘‘अरे बैठो, मैं ने किसी बात का बुरा नहीं माना. समय बहुत बदल गया है. अब न किसी के पास दूसरों के लिए समय है और न ही प्रेम या आदर. ऐसे में क्या बुरा मानना,’’ कामिनी हर शब्द पर जोर दे कर बोलीं.

वे अपनी बात पूरी कर पातीं कि उस से पहले ही सुजाताजी के बेटे अनुराग ने प्रवेश किया. वह बदहवास हो रहा  था.

‘‘क्या हुआ, अनुराग?’’ शुचि उस की हड़बड़ाहट देख कर बोली.

‘‘मां स्नानघर में फिसल कर गिर गईं. शायद हड्डी टूट गई है. अस्पताल ले जाना पड़ेगा. मां ने कामिनी आंटी को फौरन आने को कहा है. कह रही थीं कि भूलचूक माफ कर के तुरंत आ जाएं,’’ वह बोला.

‘‘कैसी भूलचूक?’’ शुचि ने प्रश्न किया.

‘‘मुझे क्या पता. यह तो मां ही बता सकती हैं,’’ अनुराग ने कंधे उचका कर अपनी विवशता प्रकट की तो शुचि ने प्रश्नवाचक मुद्रा में कामिनी पर दृष्टि डाली.

‘‘वह सब बाद में, चल कर सुजाताजी को देखते हैं,’’ कामिनी अनुराग के साथ चल दीं.

सभी लपक कर सुजाताजी के फ्लैट में पहुंचे.

‘‘देखो न कामिनी, यह क्या हो गया,’’ सुजाता कामिनी को देखते ही बोलीं, ‘‘मुझ से तो चला भी नहीं जा रहा.’’ सुजाता ने कस कर कामिनी के हाथ पकड़ लिए. तब तक ऐंबुलैंस आ गई थी. सुजाता को ऐंबुलैंस से अस्पताल पहुंचाया.

सुजाता के पैर की हड्डी न केवल टूट गई थी बल्कि अपने स्थान से खिसक भी गई थी. तुरंत उन का औपरेशन किया गया. पूरे समय सगी बहन से भी बढ़ कर कामिनी ने सुजाता की सेवा की.

3 माह के बाद सुजाता ने बैसाखी के सहारे चलना प्रारंभ किया. सदाशय हाइट्स का तो अब कायाकल्प ही हो गया है. अब केवल कामिनी ही नहीं सब एकदूसरे के इस तरह काम आते हैं मानो एक ही परिवार के सदस्य हों. कामिनी का मन भी शायक और शुचि के पास रम सा गया है, अदिति और आर्यन छात्रावास से घर जो आ गए हैं.

सुजाताजी ने किस भूलचूक की माफी मांगी थी, शुचि ने यह कई बार पूछने का यत्न किया पर हर बार कामिनी ने मुसकरा कर टाल दिया.

‘‘जाने भी दे, शुचि. जब कोई माफी मांग ले तो माफ करने में ही समझदारी है. है कि नहीं?’’

‘‘ठीक है,’’ शुचि बोली पर उस के मन में मां की महानता के लिए सम्मान और बढ़ गया था.

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