व्यंग्य - जय इंडिया जय करप्शन

कई दिनों से बड़े बाबू का चेहरा लटकालटका देख रहा था. नीम के पेड़ पर सूखी, लटकी, सड़ीगली लौकी जैसा. पर उन से इस बारे में कुछ पूछने का दुसाहस मुझ में न हो सका. औफिस में भी सहमेसहमे से रहते. सोचा, होगी घरबाहर की कोई प्रौब्लम. राजा हो या रंक, घरबाहर की प्रौब्लम आज किस की नहीं? घरबाहर की प्रौब्लम तो आज सासबहू की तरह घरघर की कहानी है. जो जितना बड़ा, उस के घरबाहर की प्रौब्लम उतनी बड़ी. हमारे जैसों के घर की प्रौब्लम हमारे जैसी. यहां मोदी से ले कर मौजी तक, सब अपनेअपने घर की प्रौब्लम से परेशान हैं. और कोई प्रौब्लम न होना भी अपनेआप में एक प्रौब्लम है.

हफ्तेभर औफिस से बिन बताए गायब रहे. आज अचानक पधारे और बड़े बाबू के चेहरे पर औफिस का गेट पार करते ही सौ किलो मुसकान देखी तो हक्काबक्का रह गया. चेहरे पर ऐसा नूर...मानो वक्त से पहले ही वसंत आ गया हो. या फिर, वसंत ने अपने आने की सब से पहले सूचना उन के चेहरे पर आ कर दी हो. गोया, उन का चेहरा, चेहरा न हो कर कोई नोटिसबोर्ड हो. वाह, क्या कामदेव सा दमदमाता चेहरा. रामदेव भी देख लें तो योग क्रियाएं भूल जाएं.

उन्होंने आव देखा न ताव, आते ही बड़ी बेरहमी से मुझे गले लगाते बोले, ‘‘वैल डन कामरेड, वैल डन. आज मैं तुम से बेहद खुश हूं.’’

‘‘सर मुझ से, मेरी वर्किंग से या...?’’

‘‘तुम्हारी वर्किंग से. तुम ने मेरे औफिस की ही नहीं, पूरे देश की नाक रख ली.’’

‘‘मैं समझा नहीं साहब, जिन का हमारे औफिस से आज तक वास्ता पड़ा है वे तो कहते हैं कि मेरी नाक ही नहीं. ऐसे में मेरी नाक न होने के बावजूद मैं ने अपने देश की नाक कैसे रख ली, सर?’’

‘‘ऐसे, ये देखो, भ्रष्टाचार की ऐनुअल ग्लोबल रिपोर्ट. हम ने हमजैसों के अथक प्रयासों से इस मामले में अपनी पोजिशन बरकार रखी है. ऊपर नहीं चढ़े तो नीचे भी नहीं गिरे. सच कहूं, अब के तो मैं डर ही गया था कि पता नहीं हमारा क्या होगा? हम अपनी इस पोजिशन को मेंटेन रख पाएंगे कि नहीं. अब एक यही तो फील्ड रह गई है जिस में हम अपना बैस्ट दे सकते हैं. सच कहूं मेरे दोस्त, यह सब तुम जैसे भ्रष्टाचार को समर्पित भ्रष्टाचारियों की वजह से ही संभव हो पाया है. आज सारे स्टाफ को लंच मेरी ओर से. कहो, क्या मेन्यू रखा जाए? जो तुम कहोगे, वही चलेगा.’’

‘‘मतलब, साहब?’’

‘‘अरे बुद्धू, तुम लोगों को जो मैं दिनरात रिश्वत लेने को बूस्ट करता था, उस का परिणाम आ गया है. देखा नहीं तुम ने अखबार में? कभीकभार अखबार पढ़ने के लिए औफिस के आरामों से वक्त निकाल लिया करो, मेरे दोस्त. तुम जैसों की मेहनत एकबार फिर रंग लाई है. भ्रष्टाचार के मामले में हम अपने पड़ोसी से आगे हैं.’’

‘‘मतलब, पड़ोसी के यहां ईमानदारी के दिन फिर रहे हैं. हम ईमानदारी में उन से पीछे हैं?’’

‘‘नहीं, भ्रष्टाचार में हम उन से आगे हैं. मैं तो कई दिनों से मरा जा रहा था कि पता नहीं अब की हमारी मेहनत का क्या रिजल्ट आएगा? भूखप्यास सब, रिजल्ट की सोच में डूबा, भूल गया था. दिनरात, सोतेजागते, उठतेबैठते यही मनाता रहा था कि भ्रष्टाचार में जो अब के हम कम से कम अपने पड़ोसी से चार कदम आगे न रहें तो न सही, पर जिस पोजिशन पर हैं उस से नीचे भी न आएं.’’

‘‘एक बात तो तय है मेरे दोस्त, कुछ और रंग लाए या न, पर जो मेहनत सच्चे मन से, बिना किसी कानून के डर से की जाए, वह रंग जरूर लाती है. अब उन के सीने के जो हाल हों, सो हों पर आज मेरा सीना चालीस इंच से फूल कर छप्पन इंच हुआ जा रहा है. क्या कर लिया उन के ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ के सिद्धांत ने हमारा? पर अंदर की बात कहूं, उन के इस बयान से मैं डर गया था यार, कि अब इस देश का क्या होगा? लेकिन अब सब समझ गया कामरेड, कोई इस देश में न खाए तो न खाए. एकाध के खाने या न खाने से कोई फर्क नहीं पड़ता. आई एम प्राउड औफ यू, माई डियर. तुम लंबी उम्र जियो. मे यू लिव लौंग. जब तक तुमहम जैसे इस देश में भ्रष्टाचार को समर्पित रहेंगे, भ्रष्टाचार को बढ़ने से इस देश में कोई भी माई का लाल नहीं रोक सकता. जय इंडिया, जय करप्शन...’’

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