कहानी - अपना अपना रास्ता


अस्पताल की खचाखच भरी हुई गैलरी धीरधीरे खाली होने लगी. सुरेंद्र ने करवट बदल कर आंखें मूंद लीं. पूरी शाम गैलरी से गुजरते उन अनजान, अपरिचित चेहरों के बीच कोई जानापहचाना सा चेहरा ढूंढ़ने का प्रयत्न करतेकरते जब आंखें निराशा के सागर में डूबनेउतराने लगती हैं तो वह इसी प्रकार करवट बदल कर अपनी थकी आंखों पर पलकों का शीतल, सुखद आंचल फैला देता है.

क्यों करता है यह इंतजार? किस का करता है इंतजार?

‘‘सो गए, बाबूजी?’’ लाइट का स्विच औन कर जगतपाल ने कमरे में प्रवेश किया तो जैसे नैराश्य के अंधकार में भटकते सुरेंद्र के हाथ में ढेर सी उजलीउजली किरणें आ गईं.

‘‘कौन, जगतपाल? आओ बैठो.’’

‘‘बाबूजी, माफ कीजिएगा. बिना पूछे अंदर घुस आया हूं,’’

बैसाखी के सहारे लंगड़ा कर चलते हुए वह उस के बैड के पास आ कर खड़ा हो गया. चेहरे पर वही चिरपरिचित सी मुसकान और उस के साथ लिपटा एक कोमलकोमल सा भाव. धीरे से करवट बदल कर सुरेंद्र ने अपनी निराश व सूनी आंखें उस के चेहरे पर टिका दीं. क्या है इस कालेस्याह चेहरे के भीतर जो इन थोड़े से दिनों में ही नितांत अजनबी होते हुए भी उन्हें इतना परिचित, इतना अपनाअपना सा लगने लगा है.

‘‘आप शाम के समय इतने अंधेरे में क्यों लेटे थे, बाबूजी? मैं समझा शायद सो गए.’’

‘‘बस, यों ही. सोच रहा था, सिस्टर किसी काम से इधर आएंगी तो खुद ही लाइट जला देंगी. छोटेछोटे कामों के लिए किसी को दौड़ाना अच्छा नहीं लगता, जगतपाल.’’ दिनरात फिरकी की तरह नाचती, शिष्टअशिष्ट हर प्रकार के रोगियों को झेलती, उन छोटीछोटी उम्र की लड़कियों के प्रति उन के मन में इन 16-17 दिनों में ही न जाने कैसी दयाममता भर आई थी. और सच पूछो तो जगतपाल, कभीकभी मन के भीतर का अंधेरा इतना गहन हो उठता है कि बाहर का यह अंधकार उसे छू भी नहीं पाता. लगता है जैसे...’’ अवसाद में डूबा उन का स्वर कहीं गहरे और गहरे डूबता जा रहा था.

‘‘आप तो बड़ीबड़ी बातें करते हैं, बाबूजी. अपने दिमाग में यह सब नहीं घुसता. यह बताइए, आज तबीयत कैसी है आप की? कुछ खाने को मिला या वही दूध की बोतल...’’

उदास वातावरण को जगतपाल ने अपने ठहाके से चीर कर रख दिया. सुरेंद्र का चेहरा खिल गया, ‘‘हां, जगतपाल, आज तबीयत बहुत हलकी लग रही है. रात को नींद भी अच्छी आई और जानते हो, आज से डाक्टर ने दूध के साथ ब्रैड खाने की इजाजत दे दी है.’’ 15 दिनों से केवल दूध और बिना नमकमिर्च के सूप पर पड़े सुरेंद्र के चेहरे पर मक्खन लगे 2 स्लाइस खाने की तृप्ति और संतुष्टि बिखर आई थी. ‘‘सच कहता हूं, जगतपाल, दूध पीतेपीते इस कदर उकता गया हूं  कि दूध का गिलास देखते ही उसे लाने वाले के सिर पर दे मारने को जी हो आता है.’’

‘‘बसबस, बहुत अच्छे. अब आप 2-4 दिनों में जरूर घर चले जाएंगे. देख लीजिएगा...’’ उस का चेहरा प्रसन्नता के अतिरेक से चमक रहा था. धीरेधीरे वह सुरेंद्र का हाथ सहला रहा था. घर? सुबह डाक्टर शशांक ने भी तो यही कहा था, ‘आप की हालत में ऐसे ही सुधार होता रहा तो इस हफ्ते आप को जरूर यहां से छुट्टी मिल जाएगी.’

सिरहाने रखा चार्ट देख कर वे अपने नियमित राउंड पर चले गए थे. तो क्या वे सचमुच फिर से घर जा सकेंगे? किस का घर? कौन सा घर? क्या उन का कोई घर है?

‘‘एक काम कर दोगे, जगतपाल? जरा यह कंबल पांवों पर डाल दो. कुछ ठंड सी महसूस हो रही है.’’

कंबल सुरेंद्र के पैर पर डाल कर जगतपाल ने मेज पर पड़ा अखबार उठा लिया और कुरसी घसीट कर उस पर पसर गया. एकएक खबर जो सुरेंद्र सुबह से न जाने कितनी बार पढ़ चके थे, अपनी टिप्पणियों सहित जगतपाल उसे सुनाए जा रहा था. और सुरेंद्र उस के चेहरे पर दृष्टि टिकाए एकटक उसे घूर रहे थे. ‘आखिर किस मिट्टी का बना हुआ है यह आदमी? अबोध मासूम बच्चे, अनपढ़, भोली पत्नी, सामने मुंहबाए अंधकारमय भविष्य और यह है कि चेहरे पर शिकन तक नहीं पड़ने देता.’ जगतपाल एक फैक्टरी में काम करता था. वह लोकल ट्रेन से आवाजाही करता था. रेलवे की स्थिति तो जानते ही हैं. आजीवन कुछ न कुछ हादसा होता रहता है और दशकों पुरानी तकनीक के बल पर विकसित देशों की बराबरी करने के ढोल पीटे जा रहे हैं. जगतपाल एक ट्रेन हादसे में अपनी एक टांग गंवा बैठा. 3 महीनों से अस्पताल में पड़ा है. अब चलनेफिरने की आज्ञा मिली है तो बैसाखी के सहारे सारे अस्पताल में चक्कर लगाता फिरता है. अपनी जीवनगाथा दोहरा कर हरेक को जीने के लिए उत्साहित किया करता है.

टांग चली गई, नौकरी की आशा टूट गई. पर माथे पर चिंता की रेखा तक नहीं आने देता. कहता है, ‘फैक्टरी में नौकरी नहीं रहेगी तो न सही, मुआवजा तो देंगे. बाबूजी 12 साल हो गए इस फैक्टरी में खटतेखटते. मुआवजे के रुपए से कोई धंधा शुरू करूंगा.’ उस की छोटीछोटी आंखों में आत्मविश्वास छलक आता है. ‘‘वक्त ने साथ दिया तो कौन जाने इस पराई चाकरी की अपेक्षा अधिक सुखचैन का जीवन कटे. कौन जानता है, वक्त कब क्या दिखा दे?’’ और उस की ये बातें सुन कर सुरेंद्र उसे देखते रह जाते हैं. कितना खुश, कितना मस्त, चिंता और दुख के सागर में डूब कर भी आशा की किरणें ढूंढ़ निकालता है. नित्य कुछ देर उन के पास आ कर हंसबोल कर उन्हें जीवन के प्रति विश्वास दिला जाता है. वरना 24 घंटे अस्पताल की इन सूनी सफेद दीवारों में घिरेघिरे उन्हें ऐसा महसूस होने लगता है जैसे वे दुनिया से कट गए हों. किसी को उन की जरूरत नहीं, दुनिया में उन का कोई अपना नहीं. ‘‘अच्छा, बाबूजी, अब आप आराम कीजिए,’’ बैसाखी उठा कर जगतपाल कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘अब जरा जनरल वार्ड की तरफ जाऊंगा. नमस्ते, बाबूजी.’’

सुरेंद्र उसे बैसाखी के सहारे जाते देखते रहे. अब किसी और अकेले पड़े रोगी के पास कुछ क्षण हंसबोल कर उस में जीवन के प्रति विश्वास घोलने का यत्न करेगा. फिर किसी और...और यही उस की दिनचर्या है. अपना भी समय कट जाता है, दूसरों का भी. पहले वे स्वयं भी तो बिलकुल ऐसे ही थे. मस्त, बेफिक्र, भविष्य के प्रति पूर्णतया आश्वस्त. सपने में भी नहीं सोचा था कि जिंदगी कभी इतनी कड़वी व बोझिल हो जाएगी. जीवन को बांधने वाले स्नेहप्यार का एकएक धागा छिन्नभिन्न हो कर बिखर जाएगा.‘काश, उन्हें भी जगतपाल की तरह कोई भोलीभाली सी सीधीसरल पत्नी मिली होती, जिस के होंठों की खिलीखिली सी मुसकान उन की दिनभर की थकान धोपोंछ कर साफ कर डालती. जिस के हाथों की गरमगरम रोटियों में प्यार घुला होता. जो उन  के बच्चों को स्नेहप्यार से जीवन के संघर्षों से जूझना सिखाती. जिस के प्रेम और विश्वास में डूब कर वे समस्त संसार को भुला देते. वे सोचने लगे, ‘ओह, यह उन्हें क्या हो गया है? क्या सोचे जा रहे हैं? निरर्थक, अस्तित्वहीन, बेकार...जिन विचारों को ठेल कर दूर भगाना चाहते हैं, वे ही उन्हें चारों ओर से दबोचे चले जाते हैं.’

आंखों पर हाथ रख कर उन्होंने आंखें मूंद लीं. कहां गया जीवन का वह उल्लास, वह माधुर्य, उन्होंने कितने सपने देखे थे. लेकिन सपने भी कभी सच होते हैं कहीं? ‘‘क्या मैं अंदर आ सकती हूूं?’’ और इस के साथ ही दरवाजे पर लटका सफेद परदा सरकाते हुए इंद्रा ने अस्पताल के उस स्पैशल वार्ड में प्रवेश किया तो जैसे अतीत की सूनी, उदास पगडंडियों में भटकते सुरेंद्र के पांव एकाएक ठिठक गए. विचारों की कडि़यां झनझनाती हुई बिखर गईं. ‘‘तुम? आज कैसे रास्ता भूल गई, इधर का?’’

कमरे में बिखरी दवाइयों की तीखी गंध से नाक सिकोड़ती इंद्रा ने कुरसी पर पसर कर कंधे से लटका बैग मेज पर पटक दिया. ‘‘बस, कुछ न पूछो. बड़ी कठिनाई स समय निकाल कर आई हूं.’’ सेंट की भीनीभीनी खुशबू कहीं भीतर तक सुरेंद्र को सुलगाती चली गई. कभी कितना प्यार था उन्हें इस महक से? ‘‘कुछ अमेरिकी औरतें आई हुई हैं आजकल एशिया का टूर करने. बस, उन्हीं के साथ व्यस्त रही इतने दिन. पता ही नहीं चला कि 8-10 दिन कैसे बीत गए.’’ एक उड़तीउड़ती सी दृष्टि पूरे कमरे में डाल उस ने पति के दुर्बल, कुम्हलाए चेहरे पर आंखें टिका दीं, ‘‘बस, अभीअभी उन्हें एयरपोर्ट पर छोड़ कर आ रही हूं. इधर से जा रही थी. सोचा, 5 मिनट आप से मिलती चलूं. कल फिर एक सैमिनार के सिलसिले में बाहर जाना है. 3-4 दिनों के लिए अचला और रमेश भी आज आने वाले थे. तुम्हारी बीमारी के बारे में बता दिया था. शायद घर पहुंच भी गए होंगे.’’

वह अपनी रौ में बोले जा रही थी और सुरेंद्र पत्नी के चेहरे पर दृष्टि टिकाए विचारों में उलझे हुए थे. ‘तो आज भी मेमसाहब मुझ पर एहसान लादने चली आई हैं. और वह भी इस रूप में? क्या इस स्त्री को तनिक भी लाजशरम नहीं है? जीवन की इस संध्या बेला में यह चटख, चमकीले कपड़े, झुर्री पड़े, बुढ़ाते चेहरे को छिपाने के यत्न में पाउडर और लिपस्टिक की महकतीगमकती परतें. आंखों के आरपार खिंचा सिनेतारिकाओं का सा काजल और चांदी के तारों को छिपाने के यत्न में नकली बालों का ऊंचा फैशनेबल जूड़ा देख कर वितृष्णा से उन के मुंह में ढेर सी कड़वाहट घुल गई. इंद्रा से पति की बेरुखी छिपी न रह सकी, ‘‘तुम आज भी नाराज हो न? पर क्या कर सकती हूं, समय ही नहीं मिलता आने का.’’

‘‘मैं तो तुम से कोई सफाई नहीं मांग रहा हूं?’’

‘‘तो क्या मैं समझती नहीं हूं तुम्हें. जब देखो मुंह फुलाए पड़े रहते हो. पर सच कहती हूं कि एक बार उन विदेशी महिलाओं को देखते तो समझते. किस कदर भारत पर फिदा हो गई हैं. कहती हैं, ‘यहां की स्त्रियों की संसार में कहीं भी समता नहीं हो सकती. कितनी शांत, कितनी सरल और ममतामयी होती हैं. घर, पति और बच्चों में अनुरक्त. असली पारिवारिक जीवन अगर कहीं है तो केवल भारत में. एक हमारा देश है जहां स्त्रियों को न घर की चिंता होती है, न बच्चों की. और पति नाम का जीव? उसे तो जब चाहो पुराने जूते की तरह पैर से निकालो और तलाक दे दो,’’ वह हंसी, ‘‘हमारे महिला क्लब को देख कर भी वे बेहद प्रभावित हुईं...’’

सुरेंद्र पत्नी के गर्व से दमकते चेहरे को आश्चर्यचकित सा देखते रह गए. पति, घर, बच्चे, सुखी पारिवारिक जीवन, ममतामयी नारियां? यह सब क्या बोल रही है इंद्रा? क्या वह इस सब का अर्थ भी समझती है? यदि हां, तो फिर वह सब क्या था? जीवनभर पति को पराजित करने की दुर्दमनीय महत्त्वाकांक्षा, जिस के वशीभूत उस ने एक अत्यंत कोमल, अत्यंत भावुक हृदय को छलनी कर दिया. उन का सबकुछ नष्ट कर डाला. ‘‘तुम्हें किसी चीज की जरूरत हो तो कहो, किसी के हाथ भिजवा दूंगी. मेरा मतलब है कुछ फल वगैरा या कोई किताब, कोई पत्रिका?’’सूनीसूनी आंखें कुछ पल पत्नी के चेहरे पर जैसे कुछ खोजती रहीं, ‘‘जरूरत? डाक्टर को बुला दो, बस...’’

ठंडा, उदास स्वर इंद्रा को कहीं गहरे तक सहमाता चला गया.

‘‘कहिए, कोई खास बात?’’

सुरेंद्र ने डाक्टर सुधीर की आवाज सुन कर आंखों पर से हाथ हटाया, ‘‘जी, हां, डाक्टर साहब, इन्हें यहां से बाहर कर दीजिए.’’ डाक्टर सुधीर एकाएक सन्न रह गए. सुरेंद्र का कांपता स्वर, उन की आंखों में छलकता करुण आग्रह आखिर यह सब क्या है? कैसी अनोखी विडंबना है? पतिपत्नी के युगोंयुगों से चले आ रहे तथाकथित अटूट दृढ़ संबंधों का आखिर यह कौन सा रूप है? मृत्युशय्या पर पड़ा व्यक्ति सब से अधिक कामना अपने सब से प्रिय, सब से मधुर संबंधियों के सान्निध्य की करता है, और यह व्यक्ति है कि...

एक असहाय सी दृष्टि उन्होंने इंद्रा पर डाली. ‘‘लेकिन, डाक्टर, मैं ने तो इन से कोई ऐसीवैसी बात नहीं की. मेरा मतलब है...’’ इंद्रा का चेहरा अपमान से स्याह पड़ गया था.

‘‘मैं समझता हूं, श्रीमती सुरेंद्र. लेकिन आप ज भी यहां आती हैं, इन का ब्लडप्रैशर बढ़ जाता है. और इन के ब्लडप्रैशर बढ़ने का अर्थ आप समझती हैं न, कितना खतरनाक हो सकता है? आज सारी रात ये सो नहीं पाएंगे. कई दिनों के बाद कल रात इन्हें नींद की गोलियों के बगैर नींद आई थी, मगर आज फिर पुरानी हालत हो जाएगी. आप समझने की कोशिश कीजिए.’’ डाक्टर के नम्रता और शालीनता में डूबे शब्द सुन कर इंद्रा का खून खौल गया. ‘‘हां, हां, मैं खूब समझती हूं. कितनी कठिनाई से समय निकाल कर इन्हें देखने आती हूं और ये हैं कि...ठीक है, अब नहीं आऊंगी.’’ झटके से पलट कर वह तेज कदम रखती हुई स्पैशल वार्ड के बाहर निकल गई.

‘‘पत्नी को देख कर आप को इतना उद्विग्न नहीं होना चाहिए, मिस्टर सुरेंद्र. आप समझदार हैं. जरा संयम रखिए,’’ डाक्टर सुधीर सुरेंद्र को अपनी स्नेह भीगी दृष्टि से सहला रहे थे.

‘‘बहुत नियंत्रण किया है अपनेआप पर, डाक्टर. बहुत सहा है इस कलेजे पर पत्थर रख कर, इसी आशा में कि शायद यह किसी दिन संभल जाएगी. पर अब नहीं सहा जाता. इस औरत को देखते ही मेरे दिमाग की नसें फटने लगती हैं. समझ में नहीं आता, क्या कर डालूं? उस का गला दबा दूं या अपना?’’  सुरेंद्र बेहद कातर हो उठे थे. ‘‘आप नहीं जानते, डाक्टर, मेरी इस दशा के लिए पूरी तरह यह औरत जिम्मेदार है. इस ने मेरा जीवन बरबाद कर दिया है. मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरा सबकुछ. मैं इसे कभी माफ नहीं कर सकता. डाक्टर, थोड़ा सा ग्लूकोज दीजिए, प्लीज? बड़ी तकलीफ हो रही है सीने में. लगता है दिल डूबा जा रहा है जैसे...’’

ग्लूकोज पिला कर, नर्स को नींद का इंजैक्शन लगाने का आदेश दे कर डाक्टर सुधीर चले गए. लेकिन नींद का इंजैक्शन और डाक्टर के सांत्वना में डूबे शब्द, सब मिल कर भी सुरेंद्र के मस्तिष्क की फटती नसों को शांति के सागर में न डुबो सके. इंद्रा ने कुछ पलों के लिए आ कर उन की आर्द्र स्मृतियों के दर्द को फिर से कुरेद कर रख दिया था. यत्न से दबाई चिनगारियां जरा सी हवा पा कर फिर से सुलग उठी थीं. तब नईनई नौकरी लगी थी उन की. नया शहर, नए मित्र, नया काम, सबकुछ नयानया. एक दिन घूमफिर कर लौटे थे तो पिता का पत्र मिला, ‘लड़की देखी है. सुंदर है, बीए कर रही है. घरखानदान अच्छा है. चाहो तो तुम भी आ कर देख जाओ.’ उन्होंने सीधासादा सा उत्तर लिख दिया था, ‘आप सब ने देख लिया, पसंद कर लिया. फिर मैं क्या देखूंगा? पढ़ीलिखी लड़की है, जैसी भी है, अच्छी ही होगी. मुझे मंजूर है.’

इंद्रा की परीक्षा तक उन्हें रुकना पड़ा था. वे कुछ महीने उन्होंने कैसे काटे थे, मन हर समय उल्लास की सतरंगी किरणों से घिराघिरा सा रहता. विवाह के नाम से कलियां सी चटखने लगतीं. आंखों में खुमार सा उतर आता. वे क्या जानते थे कि यह विवाह उन के जीवन का सब से बड़ा कंटक बन कर उन के जीवन की दिशा ही मोड़ देगा, उन का सबकुछ अस्तव्यस्त कर डालेगा? फिर एक दिन इंद्रा ने उन के साथ उन के घर में कदम रखा था. जीवनभर साथ देने की अनेक प्रतिज्ञाएं कर के दुखसुख में कदम से कदम मिला कर जीवन में आए संघर्षों से जूझने के वादे ले कर.

लेकिन उस के सारे वादे, सारी प्रतिज्ञाएं, वर्षभर के ही अंदरअंदर धूल चाटने लगी थीं. उन्होंने समझ लिया था कि उन का और इंद्रा का निबाह होना कठिन था. इंद्रा की बड़ीबड़ी महत्त्वाकांक्षाएं थीं, ऊंचेऊंचे सपने थे, जो उन के छोटे से घर की दीवारों से टकरा कर चूरचूर हो गए थे. उन का छोटा सा घर, छोटा सा ओहदा, छोटीछोटी इच्छाएं और आवश्यकताएं, कोई भी चीज इंद्रा को पसंद नहीं आई थी. दिनदिनभर पड़ोसिनों के साथ फिल्में देखना और मौल्स के चक्कर लगाना अथवा किसी के घर में किट्टी पार्टियों के साथ नएनए फैशन की साडि़यों व गहनों की चर्चा करना, यही थी उस की कुछ चिरसंचित अभिलाषाएं जो मातापिता के कठोर नियंत्रण से मुक्त हो कर अब स्वच्छंद आकाश में पंख पसार कर उड़ना चाहती थीं. दिनभर के थकेहारे सुरेंद्र घर लौट कर आते तो दरवाजे पर झूलते ताले को देख उन का तनमन सुलग उठता. ‘क्या तुम अपना घूमनाफिरना 5 बजे तक नहीं निबटा सकतीं, इंद्रा?’

‘ओहो, कौन सा आसमान टूट पड़ा, जो जरा सी देर इंतजार करना पड़ गया. ताश की बाजी चल रही थी, कैसे बीच से उठ कर आ जाती, बोलो?’ उस का स्वर सुरेंद्र को आरपार चीरता चला जाता. ‘खुद तो दिनभर दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते फिरते हैं, मैं कहीं जाऊं तो जवाबतलबी होती है.’ ‘नहीं, इंद्रा, मुझे गलत मत समझो. मेरी तरफ से तुम्हें पूरी आजादी है. कहीं जाओ, कहीं घूमो. बस, मेरे आने तक घर लौट आया करो. तुम्हारी खिलीखिली सी मुसकान मेरी दिनभर की थकान हर लेती है.’ सुरेंद्र पत्नी की जिह्वा का हलाहल कंठ में उतार वाणी में मिठास सी घोल देते.

‘ओफ, इच्छाएं तो देखो, मीठीमीठी मुसकान चाहिए इन्हें. करते हैं क्लर्की और ख्वाब देखते हैं महलों के? हुंह, ऐसी ही पलकपांवड़े बिछाने वाली का शौक था तो ले आए होते कोई देहातिन. मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की?’ इंद्रा का तीखा स्वर सुरेंद्र के कानों में लावा सा पिघलाता उतर जाता. अंदर ही अंदर तिलमिला कर वे जबान पर नियंत्रण कर लेते. जितना बोलेंगे, बात बढ़ेगी, अड़ोसीपड़ोसी तमाशा देखेंगे. अभी नईनई शादी हुई है, और अभी से...

चुपचाप कपड़े बदल कर वे बिस्तर पर पड़ जाते. वे सोचते, ‘क्या विवाह का यही अर्थ है? दिनभर के बाद घर आओ तो पत्नी नदारद. फिर ऊपर से जलीकटी सुनो? क्या शिक्षा का यही अर्थ है कि पति को हर क्षण नीचा दिखाया जाए?’ कैसे खिंचेगी जीवन की यह गाड़ी, जहां पगपग पर आलोचना और अपमान की बड़ीबड़ी शिलाएं हैं. कहां तक ठेल सकेंगे अकेले इस गाड़ी को, जहां दूसरा पहिया साथ देने से ही इनकार कर दे? क्या इन कठोर शिलाखंडों से टकरा कर एक दिन सबकुछ अस्तव्यस्त नहीं हो जाएगा?

जीवन को हतोत्साहित करने वाले इन निराशावादी विचारों को धकेलते हुए मन में आशा की किरण भी झिलमिला जाती कि अभी इंद्रा ने जीवन में देखा ही क्या है? सिर्फ मातापिता का स्नेह, बहनभाइयों का प्यारदुलार. गृहस्थी की जिम्मेदारियां बढ़ेंगी तो स्वयं रास्ते पर आ जाएगी. अभी नादान है. 20-22 की भी कोई आयु होती है. लेकिन इंद्रा ने तो जैसे पति की हर झिलमिलाती आशा को पांवों तले रौंद कर चूरचूर कर देने का फैसला कर लिया था. 2-2 वर्षों के अंतराल से विनोद, प्रमोद और अचला आते गए. उन के साथ आई उन की नन्हींनन्हीं समस्याएं, उन के नाजुककोमल बंधन, उन के नन्हेनन्हे सुखदुख. लेकिन इंद्रा को उन के वे भोलेभाले चेहरे, उन की मीठीतुतली वाणी, उन के स्नेहसिक्तकोमल बंधन भी बांध कर न रख सके. नौकरों के सहारे बच्चे छोड़ वह अपने महिला क्लब की गतिविधियों में दिनबदिन उलझती चली गई. वक्तबेवक्त आंधी की तरह घर में आती और तूफान की तरह निकल जाती. हर दिन एक नया आयोजन, जहां पति और बच्चों का कोई अस्तित्व नहीं था. कोई आवश्यकता भी नहीं थी. शायद इंद्रा गृहस्थी के संकुचित दायरे में बंध कर जीने के लिए बनी ही नहीं थी. उस का अपना अस्तित्व था. अपना रास्ता था. जहां मान था, आदर था, यश और प्रशंसा की फूलमालाएं थीं. जहां से उसे वापस लौटा लाने का हर प्रयत्न सुरेंद्र को पहले से और अधिक तोड़ता चला गया था.

जबजब वे उसे गृहस्थी के दायित्वों के प्रति सजग रहने की सलाह देते, वह कु्रद्ध बाघिन सी भन्ना उठती, ‘तुम चाहते क्या हो? क्या मैं दिनभर अनपढ़गंवार औरतों की तरह बच्चों और चूल्हेचौके में सिर खपाया करूं? क्या मांबाप ने मुझे इसलिए कालेज में पढ़ाया था?’

‘नहीं तो क्या इसलिए पढ़ाया था कि अपनी जिम्मेदारियां नौकरों और पड़ोसियों पर छोड़ कर तुम दिनदिनभर सड़कों की धूल फांकती फिरो. जानती हो तुम्हारा यह घूमनाफिरना, यह सोशल लाइफ इन नन्हेनन्हे बच्चों का भविष्य बरबाद कर रहा है, इन्हें असभ्य और लावारिस बना रहा है. अनाथाश्रम में जा कर तुम उन बिन मांबाप के बच्चों को सभ्य और सुशिक्षित बनाने की शिक्षा दिया करती हो, पर यह क्यों नहीं सोचतीं कि तुम्हारी अनुपस्थिति में तुम्हारे इन 3 बच्चों का क्या होगा? ‘जानती हो, इंदु, भूख लगने पर इन्हें क्या मिलता है? नौकरों की झिड़कियां, थप्पड़. बीमारी में तुम्हारे स्नेहभरे संरक्षण की जगह मिलती है उपेक्षा, अवहेलना, तिरस्कार. सच, इंदु, क्या तुम्हें इन अनाथों पर तनिक भी दया नहीं आती?’ किंतु इंद्रा पर सुरेंद्र के इन तमाम उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

पत्नी से उपेक्षित सुरेंद्र देरदेर तक दफ्तर में बैठे कंप्यूटर में दिमाग खपाया करते. पर वहां का वातावरण भी धीरेधीरे असहनीय होने लगा. आतेजाते फब्तियां कसी जातीं, ‘अरे भई, इस बार तरक्की मिलेगी तो मिस्टर सुरेंद्र को. पत्नी शहर की प्रसिद्ध समाजसेविका, बड़ेबड़े लोगों के साथ उठनाबैठना, अच्छेअच्छे आदमियों का पटरा बैठ जाएगा, देख लेना.’ वे क्रोध से भनभना उठते. दिलदिमाग सब सुन्न हो जाते. किस मुंह से उन के आरोपों का खंडन करते, जबकि वे स्वयं जानते थे कि इंद्रा के चरित्र को ले कर शहरभर में जो चर्चाएं होती थीं वे नितांत कपोलकल्पित नहीं थीं. अकसर आधीआधी रात को, अनजान अपरिचित लोगों की गाडि़यां इंद्रा को छोड़ने आती थीं. एक से एक खूबसूरत और बढि़या साडि़यां उस के शरीर की शोभा बढ़ातीं, जिन्हें वह लोगों के दिए उपहार बताती. क्यों आते थे वे लोग? क्यों देते थे वे सब कीमती उपहार? किस मुंह से लोगों के व्यंग्य और तानों को काटने का साहस करते? इंद्रा को वे समझाने का यत्न करते तो पत्थर की तरह झनझनाता स्वर कानों से टकराता, ‘दुनिया के पास काम ही क्या है सिवा बकने के. लोगों की बकवास से डर कर मैं अपना मानवसेवा का काम नहीं छोड़ सकती.’

‘तुम जिसे मानवसेवा कहती हो, इंद्रा, वह तुम्हारी नाम और प्रशंसा की भूख है. जिन के पास करने को कुछ नहीं होता, उन धनी लोगों के ये चोंचले हैं. हमारीतुम्हारी असली मानवसेवा है अपने विनोद, प्रमोद और अचला को पढ़ालिखा कर कर इंसान बनाना, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना, उन्हें सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक बनाना. पहले इंसान को अपना घर संवारना चाहिए. यह नहीं कि अपने घर में आग लगा कर दूसरों के घरों में प्रकाश फैलाओ.’ ‘उफ, किस कदर संकीर्ण विचार हैं तुम्हारे, अपना घर, अपने बच्चे, अपना यह, अपना वह...तुम्हें तो सोलहवीं सदी में पैदा होना चाहिए था जब औरतों को सात कोठरियों में बंद कर के रखा जाता था. मुझे तो शर्म आती है किसी को यह बताते हुए कि मैं तुम जैसे मेढक की पत्नी हूं.’

कुएं का मेढक, संकीर्ण विचार, मानवसेवा...जैसे वे बहरे होते जा रहे थे. उन की इच्छाएं, आकांक्षाएं, स्वाभिमान सब राख के ढेर में बदलते जा रहे थे. घर, बाहर, दफ्तर कहीं एक पल के लिए चैन नहीं, शांति नहीं. कोई एक प्याला चाय के लिए पूछने वाला नहीं. तनमन से थकेटूटे सुरेंद्र होटलों के चक्कर लगाने लगे. एक प्याला गरम चाय और शांति से बैठ कर दो रोटी खाने की छोटीछोटी अपूर्ण इच्छाओं का दर्द शराब में डूबने लगा. ‘तुम होटल में बैठ कर गंदी शराब मुंह से लगाते हो? शर्म नहीं आती तुम्हें?’

पत्नी का अंगारा सा दहकता चेहरा सुरेंद्र शांतिपूर्वक देखते रहे थे. ‘जब तुम्हें आधीआधी रात तक पराए मर्दों के साथ घूमने में शर्म नहीं आती, तो मुझे ही लालपरी के साथ कुछ क्षण बिताने में क्यों शर्म आए? जिस का घर नहीं, द्वार नहीं, पत्नी नहीं, उस का यह सब से अच्छा साथी है. तुम अपने रास्ते चलो, मैं ने भी अपना रास्ता चुन लिया है. अब कोई किसी की राह का रोड़ा नहीं बनेगा. जब तुम मुझ से बंध कर न रह सकीं तो मैं ही तुम से बंधने को क्यों विवश होऊं?’ उन के चहेरे पर खेलती व्यंग्यात्मक मुसकान इंद्रा को अंदर तक सुलगा गई थी. पांव पटकती हुई वह बाहर निकल गई थी. फिर एक दिन सुना था कि वे अपनी 17 वर्षीय अविवाहित बेटी अचला के होने वाले शिशु का नाना बनने वाले थे. सुन कर तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ था. वे जानते थे इंद्रा ने जिस खुली हवा में बच्चों को छोड़ा था वह एक दिन अवश्य रंग लाएगी. जबजब उन्होंने अचला को विनोद और प्रमोद के आवारा दोस्तों के साथ घूमनेफिरने से टोका था, वह अनसुना कर गई थी.

एक दिन इसी बात को ले कर उन पर बुरी तरह झल्ला उठी थी, ‘पापा, आप अपनी शिक्षा और उपदेश अपने पास ही रखिए. मैं अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हूं. आप की तरह संकीर्ण विचारों वाली बन कर मैं दुनिया में जीना नहीं चाहती. जब मम्मी हम लोगों को कुछ नहीं कहतीं, फिर आप...’ 15-20 दिनों के लिए मांबेटी कोलकाता गई थीं. जब वापस आईं तो अचला अपना लुटा कौमार्य फिर से वापस लौटा लाई थी, खुली हवा में और अधिक आजादी से घूमने के लिए. कितनी सरलता से इंद्रा ने इतनी बड़ी समस्या से छुटकारा पा लिया था. ‘तुम समझते हो, हमारी अचला ने जैसे कोई अनहोनी बात कर डाली है. आएदिन मेरे पास ऐसे कितने ही मामले आते रहते हैं. मैं इन से निबटना भी अच्छी तरह जानती हूं. बच्चों से गलती हो जाती है. गलती नहीं करेंगे तो सीखेंगे कैसे?’

शराब की मात्रा और अधिक बढ़ गई थी. वे जानते थे, जिस रास्ते पर वे जा रहे थे वह उन्हें विनाश की ओर ले जा रहा था. मदिरा उन्हें कुछ क्षणों के लिए मानसिक तनाव से छुटकारा दिला सकती थी, उन के थके, टूटे तनमन को प्रेम से जोड़ नहीं सकती थी. स्नेह, विश्वास, शांति के अभाव ने आज उन्हें फूल की एकएक पंखुड़ी की तरह मसलकुचल कर 50 वर्ष की आयु में ही मौत के कगार पर ला पटका था. डाक्टर कहते हैं, कुछ दिनों में ठीक हो कर वे फिर से घर जा सकेंगे. लेकिन वे जानते हैं, अब कभी घर नहीं लौट सकेंगे. लौटना भी नहीं चाहते. कौन है वहां जिस की ममता के बंधन उन्हें वापस लौटा लाने के लिए विवश करें? पत्नी, बेटे, बेटी? कौन?

दिल काबू से बाहर हुआ जा रहा था. सिर से पैर तक वे पसीने में नहा गए थे. ‘‘सिस्टर, सिस्टर,’’ उन्होंने घंटी पर हाथ मारा, ‘‘सिस्टर, पानी...’’ अस्पताल से निकल कर इंद्रा ने तेजी से गाड़ी घर की ओर मोड़ दी. मन में जितना आक्रोश भरा था, उसी के अनुपात में गाड़ी का ऐक्सीलेटर तेज होता गया. इस व्यक्ति ने उसे कभी नहीं समझा, समझने की कोशिश ही नहीं की. ज्योंज्यों वह यश और प्रशस्ति के पथ पर बढ़ती चली गई, यह उन से कटता चला गया.

आज शहर में उस का कितना मान और आदर है. क्या नहीं है उस के पास? सरकारी गाड़ी, बंगला, महंगे मोबाइल? वह जिधर से गुजर जाती है, लोग उस की एक झलक देखने के लिए ठिठक कर रुक जाते हैं. शहर में कोई ऐसा आयोजन नहीं जहां उसे सम्मानपूर्वक आमंत्रित न किया जाता हो. मान और यश के इस उच्चतम शिखर पर पहुंचने के लिए उस ने कितना त्याग, कितना परिश्रम, कितना कठिन संघर्ष किया है? और यह व्यक्ति है कि घायल शेर की तरह उसे काटने को दौड़ता है. घर आ गया था. गाड़ी गेट से होती हुई बरामदे के सामने जा कर रुक गई.

‘‘मम्मी, तुम आ गईं,’’ दौड़ती हुई अचला आ कर उस के गले से लिपट गई.

इंद्रा ने सिर से पैर तक सजीधजी बिटिया को देखा. वह पिता की नाजुक हालत की खबर पा कर आई थी.

‘‘कब आई?’’

‘‘यही कोई 4 साढ़े 4 बजे के करीब.’’

‘‘अकेली आई हो?’’

‘‘क्यों, अकेली क्यों आऊंगी? रमेश भी आए हैं साथ. अब कोई पापा का डर थोड़े ही है, जो न आते.’’ पापा के न होने की प्रसन्नता उस के चेहरे पर छलकीछलकी पड़ रही थी.

इंद्रा के गले में बांहें झुलाती हुई वह उसे ड्राइंगरूम में घसीट लाई. सालभर के बच्चे को पेट पर लिटाए रमेश सोफे पर पसरा पड़ा था. ‘‘उठो, रमेश, मम्मी आई हैं.’’ सास को देख रमेश उठ कर बैठ गया, ‘‘मम्मी, आइए. कब से हम लोग आप का इंतजार कर रहे हैं. विनोद और प्रमोद भी घर से गायब हैं. लगता है, क्लब में यारदोस्तों के साथ पत्तों में मशगूल होंगे. हम दोनों बैठेबैठे बोर हो रहे थे अकेले.’’ सोफे पर पसर कर इंद्रा ने बेटीदामाद के चेहरों पर टटोलती सी दृष्टि डाली. न कोई दुख, न उदासी. बस, एक तटस्थ सा भाव, जैसे यह भी एक औपचारिकता है. खबर मिली, चले आए. बस. मगर दुख और चिंता का भाव आता भी तो क्योंकर? कभी बच्चों ने पिता को पिता नहीं समझा. मातापिता की कलह में विजय हमेशा मां के हाथ रही. पिता सदा से एक परित्यक्त जीवन ढोता रहा. न उस की इच्छा और रुचि की कोई चिंता करने वाला था, न उस के दुख में कोई दुखी होने वाला. घर में सब से बेकार, सब से फालतू कोई चीज यदि थी तो वह था पिता नाम का प्राणी. फिर उस के प्रति किसी प्रकार की ममता, आदर या स्नेह आता तो कैसे?

‘‘अस्पताल क्यों नहीं गए?’’ इंद्रा ने सोफे की पीठ पर बाल फैलाते हुए अचला की ओर देखा.

‘‘अस्पताल? बाप रे, कौन जाता पागल कुत्ते से कटवाने अपने को?’’ अचला ने हाथमुंह नचाते हुए टेढ़ा मुंह बनाया.

‘‘साफसाफ क्यों नहीं कहती कि पापा अस्पताल में हैं, इसलिए हम लोग आप सब से मिलने आए हैं. उन के रहते तो इस घर में पांव रखने में भी डर लगता है. मुझे कैसी खूंखार आंखों से घूरते हैं. बाप रे’’ रमेश ने बिटिया को अचला की गोद में डाल, उसे शाल उढ़ाते हुए मन की सच्ची बात उगल दी.

अचला ने पिता की इच्छा के विरुद्घ घर से भाग कर उस से शादी की थी, क्योंकि सुरेंद्र की नजरों में वह एक आवारा और गुंडा किस्म का लड़का था. इसी वजह से वह ससुर से घृणा करता था. ‘‘तुम ठीक कहते हो. आजकल वे सचमुच पागल कुत्ते की तरह काटने दौड़ते हैं. मैं ने भी फैसला कर लिया है कि अब अस्पताल नहीं जाऊंगी. शायद जाना भी न पड़े. जानते हो, डाक्टर कहते हैं, वे 2-4 दिन के मेहमान हैं.’’ इंद्रा ने चाय का घूंट निगलते हुए अचला की ओर देखा, ‘‘पहला दौरा उन्हें तब हुआ था जब विनोद कालेज से उषा को भगा कर मुंबई में बेच आया था. 3 दिनों तक वे घर नहीं आए थे. तीसरे दिन पता चला था, होटल में शराब पीतेपीते उन्हें दौरा पड़ा था. वहीं से उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया गया था. और अब तुम्हारे जाने के बाद उन के इस दूसरे दौरे ने उन के दिल की धज्जियां उड़ा दी हैं. मैं तो आज तक नहीं समझ पाई इस आदमी को. क्या चाहता है, क्या सोचता है, क्या नहीं है इस के पास?’’

निर्लिप्त से स्वर में बोलतेबोलते उस ने चाय का खाली प्याला मेज पर रख दिया. रात को खापी कर देर तक ड्राइंगरूम में बैठ सब ऊधम मचाते रहे. अचला और रमेश के आगमन की सूचना पा कर उन के मित्र भी मिलने चले आए थे. इंद्रा को सुबह 7 बजे की फ्लाइट पकड़नी थी, सो 6 बजे का अलार्म लगा कर नौकर को सब आदेश दे, वह बिस्तर में दुबक गई. सुबह घड़ी के अलार्म की जगह मोबाइल की घंटी टनटनाई तो इंद्रा रजाई फेंक कर बिस्तर से उठ बैठी.

‘‘हैलो,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘मिस्टर सुरेंद्र अब इस दुनिया में नहीं रहे.’’

‘‘ओहो, अच्छाअच्छा.’’

मोबाइल रख कर कुछ क्षण वह जैसे निर्णय सा लेती रही, ‘इन्हें भी यही वक्त मिला था खबर देने को,’ बड़बड़ाती हुई वह गुसलखाने में घुस गई. वहां से हाथमुंह धो कर निकली तो नौकर को पुकारा, ‘‘देखो, रामू, मेरी चाय यहीं दे जाओ और ड्राइवर से कहो गाड़ी तैयार करे. जाने का टाइम हो गया है, समझे. और हां देखो, विनोद और प्रमोद को मेरे पास भेज दो जगा कर. कहना बहुत जरूरी काम है. समझ गए?’’

‘‘जी,’’ कह कर रामू चला गया तो वह ड्रैसिंगटेबल के सामने बैठ कर जल्दीजल्दी बालों में कंघी करने लगी. जूड़ा बना कर उस ने होंठों पर लिपस्टिक फैलाई ही थी कि विनोद आंखें मलता सामने आ कर खड़ा हो गया, ‘‘क्या बात है, मम्मी? सुबहसुबह नींद क्यों बिगाड़ दी हमारी? क्या हमें जगाए बिना आप की सवारी सैमिनार में नहीं जा सकती थी?’’ इंद्रा ने लिपस्टिक को फिनिशिंग टच दे कर बेटे के चेहरे पर आंखें टिका दीं, ‘‘तुम्हारे पापा नहीं रहे. अभीअभी अस्पताल से फोन आया है. रात को वे बहुत बेचैन रहे और सुबह कोई 4 बजे के करीब डाक्टरों की पूरी कोशिश के बावजूद उन का हार्ट सिंक कर गया.’’

‘‘क्या?’’ विनोद की अधखुली आंखें अब पूरी तरह खुल कर फैल गई थीं,  ‘‘इतनी जल्दी?’’

‘‘जल्दी क्या? उन्होंने तो अपनी मौत खुद बुलाई है. खैर, मैं ने तो तुम्हें इसलिए बुलाया है कि मैं तो जा रही हूं. रुक नहीं सकती. वचन जो दे चुकी हूं. तुम लोग रमेश अंकल को फोन कर देना. वे आ कर सब संभाल लेंगे, समझे.’’ नित्य की तरह माथे पर सुहाग चिह्न लगाने के अभ्यस्त हाथ एक क्षण के लिए कांपे. क्या अब भी यह सौभाग्य चिह्न माथे पर अंकित करना चाहिए? सौभाग्य चिह्न? कैसा सौभाग्य चिह्न? क्या इस रूप में उस ने कभी इसे माथे पर अंकित किया था? बस, अन्य सौंदर्य प्रसाधनों की तरह जैसे चेहरे पर पाउडर और होंठों पर लिपस्टिक लगाती रही, वैसे ही यह भी उस के गोरे, उजले माथे पर शोभता रहा. फिर सोचना क्या?

हवा में ठिठका उस का हाथ आगे बढ़ा और माथे पर लाल रंग की गोलमोल बिंदी टिक गई.

कैसे पति? कैसी पत्नी? जब वे अपना रास्ता नहीं छोड़ सके तो मैं ही क्यों छोड़ दूं? साड़ी का पल्ला ठीक करती हुई वह ड्रैसिंगटेबल के सामने से उठी और पर्स उठा कर बाहर निकल गई. ‘‘देखो, विनोद, कोई पूछे तो कह देना जब खबर आई, मैं घर से जा चुकी थी, समझे.’’ पलट कर तेजतेज कदम रखती हुई वह सीढि़यां उतर कर गाड़ी में बैठ गई. अनिश्चय की स्थिति में सकपकाया सा विनोद गाड़ी को गेट से निकलते देखता रहा. क्या मम्मीपापा में कभी कोई संबंध था? यदि हां, तो फिर कौन सा?

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