व्यंग्य - मुझे कचहरी से बचाओ

घरेलू झगड़ा कचहरी तक पहुंचा तो मास्टरजी भी तमाम जमापूंजी ले कर चल दिए मुकदमेबाजी करने ‘काले कोट’ वालों की दुनिया में. लेकिन मास्टरजी को कहां पता था कि यहां तो बिल्लियों की लड़ाई में बंदरों की मौज मनती है. फिलहाल, मास्टरजी की मनोदशा यह है कि चार जूते मार लो लेकिन कम्बख्त कचहरी से बचा लो.

अनेक धर्मों की तरह पड़ोसी का भी अपना एक धर्म है. जागरूक पड़ोसी वे कहलाते हैं जो न तो खुद चैन से रहते हैं न पड़ोसी को चैन से रहने देते हैं. संयोग से हमारे पड़ोसी में ये सारे गुण इफरात से मौजूद हैं. हमारी नजर में वे आदर्श पड़ोसी हैं, उन की नजर में हम.

एक बार जमीनजायदाद को ले कर हम दोनों के बीच लाठियां तन गईं. हम दूसरों की लात सह सकते हैं लेकिन पड़ोसी की बात नहीं. हमारे भाईसाहब बचपन से ही अच्छे निशानेबाज रहे हैं, सो उन्होंने एकदो लाठियां जड़ दीं. मामला थाने में गया. थानेदार साहब ने गीता पढ़ी थी. उन को पता था कि जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है, आगे और भी अच्छा होगा. उन्होंने हमें बुला कर समझाया, ‘‘देखिए मास्टर साहब, आप भले आदमी हैं, इसलिए कह रहा हूं कि मामले को रफादफा कर लीजिए. कोर्टकचहरी का चक्कर बहुत खराब होता है. आप अपने भाईसाहब को कहीं भी छिपाएंगे, पुलिस खोज ही लेगी. आप तो जानते ही हैं कि कानून के हाथ कितने लंबे होते हैं,’’ उन्होंने हाथ को फैला कर दिखाया. हमें यकीन हो गया कि कानून के हाथ दारोगाजी के हाथ की तरह ही लंबे होते होंगे. हम ने अपनी मजबूरी और ईमानदारी एकसाथ दिखाने की कोशिश की.

‘‘सर, जिस दिन मारपीट हुई उस दिन हमारे भाईसाहब घर पर नहीं थे. उन का कोई हाथ नहीं है.’’

‘‘देखिए साहब, यह बात तो हम अच्छी तरह जानते हैं कि उन का हाथ नहीं है मगर नाम दर्ज है. इसलिए गिरफ्तार करना ही पड़ेगा. जब हम गिरफ्तार करेंगे तो जेल भी भेजना पड़ेगा. जेल की बात तो आप जानते ही हैं. एक बार गए तो चोरउचक्कों की सोहबत. गीता में कहा गया है कि कायर मत बन अर्जुन. जो देना है लेदे कर मामला निबटा लेने में ही भलाई है, बाकी आप की मरजी.’’

शांतिवार्त्ताएं होने लगीं. मोलतोल होने लगे लेकिन मामला सुलझा नहीं. दारोगाजी के पास गीता का ज्ञान था. हर काम को प्रकृति की इच्छा मानते थे. कर्तव्य कर रहे थे लेकिन फल की इच्छा नहीं रखते थे. उन का फल हमारे बूते से बाहर था.

आखिरकार हमारे भाईसाहब जेल की शोभा बढ़ाने के लिए प्रस्थान कर गए. अब शुरू हुआ नाटक का दूसरा भाग. ‘जेल से बेल’ शीर्षक से.

मेरे एक मित्र थे, बी के तलवार. वकालत उन का पेशा था. पार्टटाइम कवि भी थे. कविता से पब्लिक में घुसने का मौका मिल जाता था. वे अपने को प्रगतिशील भी मानते थे. मानते ही नहीं थे बल्कि समाज सुधार के दावे भी करते थे. हम से जब भी मिलते, इतना जरूर कहते कि मास्टर ही सच्चे समाजसुधारक होते हैं. आप को नमन करने का मन करता है. हम ने सोचा, इतना प्रगतिशील कवि है तो वकील भी उतना ‘डाकू’ नहीं होगा.

एक दिन सुबहसुबह हम उन के आवास पर जा पहुंचे. उन्होंने बड़ा भव्य स्वागत किया. बातों से इतनी आवभगत की कि मन खुश हो गया. अंत में हम ने काम की बात की. उन्होंने सपाट लहजे में कहा, ‘‘कचहरी आ जाइएगा. एफआईआर की नकल निकालनी होगी. उस का अध्ययन करने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है. मेरा चैंबर पता है न आप को. जिला जज के सामने वाले हौल में.’’

हम ने फीस के बारे में पूछना मुनासिब नहीं समझा. अपने मित्र हैं, जो लेंगे देखा जाएगा.

हम कचहरी में पहुंचे. चारों ओर काले कोट वालों का साम्राज्य, या तो फटेपुराने कपड़ों में मुवक्किल या वरदी में पुलिस वाले. कारें, साइकिलें, मोटर वाली भी और बिना मोटर वाली भी.

नाना प्रकार के वाहन और नाना प्रकार के लोग. हम ने भी अभिमन्यु वाली वीरता से भीड़ को चीरना शुरू किया और पूछतेपाछते जा पहुंचे तलवार साहब के टेबल तक. अपने जूनियरों से घिरे वे भगवान विष्णु की तरह मुसकरा रहे थे. हमें देख कर एकदम से ठहाके लगा कर हंसे, बोले, ‘‘ऐसी जगह है मास्टर साहब कि यहां राजा और रंक, शरीफ और बदमाश, अनपढ़ और पढ़ेलिखे सब आते हैं. यह मंदिर है न्याय का. आप को भी न्याय मिलेगा. बस, जरा प्रसाद चढ़ाना पड़ता है.’’

फिर ठहाका. हम ने भी मुसकराने की कोशिश की. असफल रहे. पहली बार कचहरी में जाने का मौका मिला था. हम अपने को नर्वस महसूस कर रहे थे. यह भी डर था कि कोई जानपहचान का आदमी देख न ले. उन्होंने हमारी अवस्था का अंदाजा लगाया और अपने एक जूनियर से बोले, ‘‘देखो, ये हमारे मित्र हैं. इन का केस नंबर ले लो और जा कर केस की नकल ले आओ. ये कहीं नहीं जाएंगे, बुद्धिजीवी आदमी हैं. तुम जाओ. सिंहजी, आप इस को 500 रुपए दे दीजिए. यहां तो चारों ओर लूट मची हुई है. कहांकहां से रक्षा होगी.’’

हम ने भी साथ में चलने की इल्तिजा की और साथ हो लिए. रिकौर्ड रूम का किरानी, जो शायद पिछले कुंभ के समय आखिरी बार मुसकराया था, बहुत व्यस्त था. सरकार को गालियां दिए जा रहा था जिस की वजह से एक दिन का चैन भी नसीब नहीं होता. जूनियर महोदय की कृपा से थोड़ा मुसकराया लेकिन जल्दी ही गंभीर हो कर बोला, ‘‘शाम के 4 बजे आइए.’’

शाम के 4 बजे का अर्थ हमारा नादान हृदय समझ नहीं सका. हम कचहरी के अहाते में ही आहत से घूमघूम कर समय काटने लगे. जल्दी ही हमारी समझ में आने लगा कि 4 किस समय बजते हैं. समय काटना इतना आसान काम नहीं है. यह भी एक कला है जो दूसरी कलाओं की तरह सब को नहीं आती. दुनिया के सारे निठल्लों को नमस्कार कर के हम ने भालू का नाच देखने का मन बनाया.

मदारी की कला देख कर हमें तसल्ली हुई कि देश से अभी हाथ की सफाई खत्म नहीं हुई है. मदारी जब भालू को ले कर चला गया तो हम उदास मन से सड़क के किनारे बिक रहे चाइनीज सामानों की ओर मुखातिब हुए. जापानी टौर्च, चीनी खिलौने, नाना प्रकार की घडि़यां, कैमरे और न जाने क्याक्या, कानून की नाक के ऐन नीचे पूरे ठाट से बिक रहे थे. पुलिस प्रशासन के प्रति हमारी श्रद्धा उमड़ी. ‘ऐसे कोउ उदार जग माहीं’? पुलिस यदि इन गरीबों को पकड़ ले तो बेचारे क्या करेंगे? इन की रोजीरोटी का कितना खयाल रखती है, बदले में ये लोग भी तो रखते हैं. परस्पर प्यार और भाईचारा ही तो हमारे देश की पहचान है.

सामान देखते हुए हम भीड़ में जा निकले. गवाहों की खरीदफरोख्त चल रही थी. गवाह 3 हजार रुपए मांग रहा था. खूनी की हैसियत वाला आदमी उसे 1 हजार रुपए देने के लिए तैयार था. ‘इंसानियत’, ‘सामाजिकता’, ‘ईमान’, ‘धर्म’ जैसे शब्दों का प्रयोग दोनों ओर के लोग कर रहे थे. हमारे रुकने का एक कारण यह भी था. पुलिस के लोग भी थे. दोनों पक्ष के लोग खूब मुसकरा रहे थे. बड़ा ही सौहार्दपूर्ण वातावरण था. मामला जब 1500 में निबट गया तो हम वहां से खिसक लिए.

आगे पेशेवर जमानतदारों का बाजार था. 3 लोग मजे से प्रैक्टिस पर थे. 5 हजार की जमानत के 500, 10 हजार की जमानत के 1 हजार. हमारा मन श्रद्धा से झुक गया. मान लो किसी का जानने वाला इस शहर में नहीं हो तो वह गवाह और जमानतदार कहां से लाएगा? अब कम से कम इस बात की गारंटी तो है कि रुपए हों तो किसी चीज की कमी नहीं है. ‘सकल पदारथ है जग माहीं...’ तुलसी बाबा को प्रणाम कर के हम आगे बढ़े.

एक जमानतदार से हम ने गुजारिश की, ‘‘कमाई हो जाती है?’’

बदले में बेचारे ने मुंह लटका कर कहा, ‘‘कहां साहब, बस गुजारा चल जाता है. मेरे चाचा की दिल्ली में प्रैक्टिस है. बहुत अच्छी कमाई होती है. हम तो अपनी खेतीकिसानी के चक्कर में फंसे हैं वरना अच्छी प्रैक्टिस के लिए तो महानगरों में ही जाना अच्छा है. वहां बड़ेबड़े लोग आते हैं, अच्छी कमाई हो जाती है.’’

‘‘लेकिन अगर कोई बदमाश भाग गया तो पुलिस वाले आप को पकड़ेंगे.’’

‘‘कहां से पकड़ेंगे? हमारे जो राशनकार्ड और मतदाता पहचानपत्र हैं, सब नकली हैं. ये जो जमीन के कागजात आप देख रहे हैं, ऐसी जगह कहां है, हमें नहीं पता. सारी चीजें यहीं बन जाती हैं कोर्ट कैंपस में ही.’’

हम उस के ज्ञान की सीमा के आगे नतमस्तक हुए. भारत अनेकता में एकता का देश क्यों कहलाता है इस का एक प्रत्यक्ष उदाहरण मिला. इतनी लीलाओं के चश्मदीद गवाह बनने के कारण 2 बज गए. तब तक हम 8 कप चाय और

10 समोसे खा चुके थे. चाय और समोसों की विशेषताओं का वर्णन करें तो अलग से एक पोथा भर जाएगा. 3 बजे हमारा पतन हो गया. हम चाय वाले की बैंच पर ही निढाल से जा गिरे. चाय वाले ने हमें देखा और एक मुसकराहट फेंकी.

4 बजे हमारे अंदर नई चेतना जगी. चेतना को ले कर चैतन्य होते कि अचानक शोर मचा.

‘‘भाग गया, भाग गया.’’

पुलिस वाले दौड़ने लगे. लोग भागने लगे. हमारा चायवाला इन परिस्थितियों में भी निश्छल भाव से मुसकरा रहा था. हम ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक इस अफरातफरी का कारण जानना चाहा उस ने तो बड़े आत्मविश्वास से सूचित किया.

‘‘एक कैदी भाग गया है.’’

थोड़ी देर के बाद उस ने आकाशवाणी सी की, ‘‘यह काम उस के वकील का है. वकीलों का काम ही यही है. अपने क्लाइंट की हर संभव मदद करते हैं. उन के लिए असंभव कुछ है भी नहीं. उन की बड़ी धाक है इस कचहरी में.’’

हम पुलकित हुए. कितने महानमहान वकील हैं इस दुनिया में. अंदर वालों की भी सेवा और बाहर वालों की भी. ‘मेरा भारत महान’ ऐसे ही नहीं कहते. अभी हमारा चिंतन आगे बढ़ता कि तलवार साहब आते दिखे. आते ही बोले, ‘‘आज आप का काम नहीं हो सकेगा. आप कल आइए.’’

हम ने सहमते हुए निवेदन किया, ‘‘जी, मैं रोज नहीं आ सकता. विद्यालय से और छुट्टी लेना इतना आसान नहीं है.’’

‘‘ठीक है, फिर आप मुंशीजी से समझ लीजिए.’’

हम मुंशीजी की शरण में पहुंचे. मुंशी नामधारी जीव कचहरी का आदिम प्राणी है. जब कचहरी नहीं थी तब भी मुंशी था. कचहरी नहीं रहेगी तब भी मुंशी रहेगा. वकीलों के प्राण इसी तोतारूपी मुंशी में कैद रहते हैं. यह एक ऐसा जीव है जिस के पास सोचने की क्षमता तो बहुत होती है मगर समझने की नहीं. वह केवल अपनी ही बात समझ सकता है, नहीं तो पैसे की बात समझता है.

हम ने उस से समझने की कोशिश की. समझातेसमझाते उस ने 500 रुपए रखवा लिए. अब हम जिंदगी की नाना प्रकार की चिंताओं से मुक्त हो गए. हमारा एक ही काम था. मुंशीजी को फोन करना. वे कभी कल नहीं कहते, केवल आज कहते. हमारी उन की अच्छी जानपहचान बन गई लेकिन एफआईआर की नकल नहीं निकली.

आखिर 1 मास के उपरांत हमें नकल मिल गई. हम युरेकायुरेका कह कर थोड़ा नाचे. शाम को तलवार साहब का फोन आया, ‘‘कहां हैं साहब, आप के दर्शन ही नहीं हो रहे. आइए, चाय पीते हैं.’’

हम उन के घर पहुंचे. इलायची वाली चाय पेश की गई. हमारी आवभगत हो रही थी लेकिन पता नहीं क्यों हमारे दिल की धड़कन थम ही नहीं रही थी. हम चौकन्ने हो रहे थे. आखिरकार, इंतजार खत्म हुआ. वकील साहब बोले, ‘‘आप का केस पढ़ लिया है. ऐसा तगड़ा डिफैंस तैयार करेंगे कि भाईसाहब एक ही बहस में बाहर आ जाएंगे. साहब, यह भी कोई बात हुई कि जो आदमी सीन में मौजूद ही नहीं हो उस के खिलाफ केस दायर हो जाए. हम तो दारोगा को भी घसीटेंगे. कब तक चुप रहेंगे हम लोग?’’

हमारे अंदर जिस कुंठा ने जन्म ले लिया था उस का अंत हो गया. एक नया जोश भर गया.

‘‘हम तो कहते हैं कि आप के पड़ोसी को भी किसी न किसी मामले में यहां घसीट लाएंगे. आखिर उसे भी तो सबक मिलना चाहिए कि आप क्या चीज हैं. चला है आप से टकराने. उसे पता नहीं है कि आप क्या चीज हैं. हम जो आप के साथ हैं. इस बार बच्चू को ऐसा सबक सिखा दीजिए कि फिर कभी आप की ओर देखने का साहस ही न करे. कहते हैं न कि क्षमा शोभती उस भुजंग को जिस के पास गरल हो.’’

बस साहब, अब हमें और क्या चाहिए था. मिजाज गद्गद हो गया. अपने पड़ोसी के विनाश के सामने तो मेरे लिए इस से बड़ा सुख कुछ न था. मैं ने जोश में आ कर वकील साहब को 5 हजार रुपए नजर किए और खुशीखुशी घर आ गया. हमारा सारा गम जाता रहा. दूसरे दिन केस ‘मूव’ हो गया.

तारीख पड़ी, हम हाजिर हुए. वकील साहब ने अपने चैंबर में बुलाया. इतने प्रेम से पेश आए कि मन खुश हो गया. आज भी सभ्यता और शिष्टाचार जिंदा है. उन्होंने सूचित किया, ‘‘थोड़ी देर में आप के केस का नंबर आ जाएगा. बहस करनी पड़ेगी, आप फीस जमा कर दीजिए.’’

हमारी घिग्घी बंध गई.

‘‘जी, अभी उसी दिन तो आप को 5 हजार रुपए दिए थे. आप...’’

‘‘कमाल करते हैं आप, वे पैसे तो हम ने केस तैयार करने के लिए लिए थे. केस को तैयार करना पड़ता है. पढ़ना पड़ता है. रातरात भर जागना पड़ता है. अभी केस पर बहस होनी है.’’

हम क्या कर सकते थे. 3 हजार रुपए जमा किए, मानो पुरखों का पिंडदान किया हो. बहस की पूरी तैयारी हो गई थी. सब लोग कोर्ट नंबर 3 में पहुंचे. जज साहब नहीं आए थे. इंतजार होने लगा. थोड़ी देर में घोषणा हुई, ‘जज साहब आज नहीं आएंगे. उन्हें नजला हो गया है. आज छुट्टी पर हैं.’ हम ने वकील साहब की ओर देखा. वकील साहब दूसरी ओर देख रहे थे. बाहर आने पर उन्होंने सूचित किया, ‘‘अगले महीने की 10 तारीख को आइए.’’

उस के बाद चले गए. हम ठगे से वहीं खड़े रहे. हमारे 3 हजार रुपए का बलिदान हो गया, हासिल कुछ नहीं हुआ. मन मार कर वापस आ गए. जितने लोगों से बात होती, सब यही कहते कि मामले को रफादफा करा लो, वरना ये वकील तुम्हें अगले जन्मों तक लड़ाएंगे. हम ने फिर भी अपने मन को कड़ा किया. अब जब मैदान-ए-जंग में आ ही गए हैं तो पीठ नहीं दिखाएंगे, चाहे जो हो जाए. कुछ पैसे जाते हैं तो जाएं. पड़ोसी के सामने झुकें, हरगिज नहीं. जो होगा देखा जाएगा. अगले माह की 10 तारीख को तो आना ही था, आ गई. हम कोर्ट में पहुंचे. तलवार साहब बिलकुल मुस्तैद खड़े थे. उन्होंने सूचित किया, ‘‘आप के केस की पूरी तैयारी कर ली है. इस बार जज साहब भी रहेंगे, पता कर लिया है. बस, एक बहस काफी है. आप के भाईसाहब तो बाहर आ ही जाएंगे. उस के बाद आप के पड़ोसी को भी देखेंगे. आप फीस जमा कर दीजिए. मुंशीजी से मिल लीजिए.’’

हम ने मुंशीजी से मुलाकात की. उन्होंने हमें देखते ही हिनहिनाना शुरू कर दिया, ‘‘आप तो वकील साहब के मित्र हैं. इसलिए हम तो चुप ही रहेंगे. दूसरा कोई होता तो उस से लड़ कर लेते. आप जो फीस दे रहे हैं वह तो वकील साहब के लिए है. हम गरीबों के लिए तो कुछ है ही नहीं.’’

हम ने 1 हजार रुपए वकील साहब के लिए व 500 रुपए मुंशीजी को दिए. कुल 1,500 रुपए का बलिदान हो गया. धड़कते हृदय से हम ने 3 नंबर कोर्ट में प्रवेश किया. जज साहब भी आ गए. हमारे केस का नंबर भी आ गया. सरकारी वकील उठा. गला साफ कर के बड़े ही नाटकीय अंदाज में बोला, ‘‘हुजूर, माफ किया जाए. हमारे पास यह केस आज ही पहुंचा है. हम ने इसे पढ़ा नहीं है. अगली तारीख पर पढ़ कर आने का वादा करता हूं.’’

उस के बाद जज साहब ने एक मजाक किया. सब लोग हंसने लगे. हमारी जड़बुद्धि में कुछ नहीं आया. हमारे वकील साहब ने बाहर रुकने को कहा. दूसरे केस देखने लगे. हम रुके रहे. बाहर आते ही वकील साहब बोले, ‘‘यह जब तक खाएगा नहीं, तब तक गाएगा नहीं. बड़ा ही घाघ किस्म का आदमी है. एक नंबर का खाऊ है, खाऊ. आप एक काम कीजिए, उस के लिए भी कुछ दानदक्षिणा छोड़ दीजिए. मुंशीजी समझा देंगे.’’

हमारी चेतना थोड़ी देर के लिए लुप्त सी हो गई. वकील साहब चले गए. हम क्या करते. गरदन फंस गई थी. न निकालते बन रही थी न...लाचार हो कर हम ने वकील साहब की शर्तें पूरी कीं. रोतेबिलखते घर आए. एक सरकारी मास्टर जो तनख्वाह के रुपए पर जीता है उस की दशा का अंदाजा कोई वेतनभोगी ही समझ सकता है. यह तो रही हमारी हालत.

हमारे पास पैसे आते तो थे. वहां तो हम ने यह सीन भी देखा कि फटापुराना, जर्जर मुवक्किल है और वकील साहब उस को हलाल कर रहे हैं. वह रो रहा है, गिड़गिड़ा रहा है, मगर वकील साहब पूरी फीस ले कर ही छोड़ते हैं. बहस हो चाहे नहीं हो.

खैर, अगली तारीख की जानकारी हमें फोन से दी गई. वकील साहब बोले, ‘‘अगले महीने की 5 तारीख को ‘डेट’ है. आप आना चाहें तो आ जाएं. हम आप की पीड़ा समझते हैं लेकिन क्या करें. हम जिस माहौल में जी रहे हैं उस में एक मध्यवर्गीय आदमी की यही पीड़ा है, इसलिए मार्क्स इसे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद कहता था. ये साहब माओत्से तुंग का आदर्शवाद है कि...’’

हम ने अपना मोबाइल औफ कर लिया. ये बातें अब हमारी समझ में भी आ गई थीं. जेल में आते तो भाईसाहब का चेहरा देख कर फिर से लड़ने का हौसला आ जाता.

अगली तारीख भी आ ही गई. हम ने जाने का ही निश्चय किया. फीस फिर जमा करनी थी वरना वकील साहब ही बीमार हो जाते. मन को मनाना मुश्किल काम है. सबकुछ ठीकठाक चला. बहस भी हुई. हमारे वकील साहब बोले भी. सरकारी वकील ने पैसे की लाज रखी. चुप रहा. जज साहब बोले, ‘‘केस की डायरी मंगा लीजिए.’’

कुल 5 शब्द बोल कर दूसरा केस देखने लगे. हमारे 1 हजार रुपए फिर बलिवेदी पर चढ़ गए. अब हमारा मन बगावत करने लगा था. हम ने अपने वकील साहब से जानना चाहा कि

ये डायरी क्या बला है. उन्होंने  सविस्तार समझाया और अंत में अत्यंत दुखी मन से बोले,  ‘‘मुंशीजी से समझ लीजिए.’’

इस वाक्य का अर्थ हमारी समझ में आ गया था. हम मुंशीजी की शरण में पहुंचे और बिना कुछ कहे डायरी मंगाने के 1 हजार रुपए रख दिए. अगली तारीख बता दी गई. 2 महीने के बाद,

8 तारीख को. बारबार स्कूल से छुट्टी लेने का मतलब हमारे प्राचार्य ने हमारा नाम उन बांकुरों में शामिल कर लिया जो सरकार से पैसा ले कर अपना काम करते हैं. हम अपनी जगह मजबूर थे, प्राचार्य अपनी जगह. इसी मजबूरी के आलम में बुजुर्गवार ने हमें सलाह दी कि केस वकील नहीं लड़ते, केस लड़ते हैं मुवक्किल. आप किसी पुराने केसबाज से सलाह लीजिए. आप को बाहर निकलने का रास्ता बताएगा.

यों तो उन्होंने भी इस क्षेत्र में काफी नाम कमाया था. अपनी कुल जमीन बेच कर लड़ गए थे. हम ने सोचा गुरु की तलाश में कहीं सारी उम्र न निकल जाए. इसलिए उन्हीं से ज्ञान की याचना की. उन्होंने केस की पूरी कहानी सुनने के बाद बताया कि पड़ोसी से मिलो. अगर वह समझौता करने के लिए तैयार हो जाए तो मामला खत्म. समझौते की कौपी लगेगी. बस हो गई बेल.

हम ने जिज्ञासु छात्र की तरह पूछा कि आखिर हमारा पड़ोसी अपने धर्म का त्याग कर हमारे साथ समझौता क्यों करेगा? उन्होंने गुरुसुलभ ठहाका लगाया और बोले, ‘‘आप को लगता है कि आप का पड़ोसी परेशान नहीं होगा. साहब, उस को भी इसी तरह लूट रहे होंगे. दोनों वकील आपस में मिल गए होंगे. आप को भी मिलने का संदेश दे रहे हैं. ‘कायर मत बन अर्जुन युद्ध कर’ यह संदेश वकील लोग सब को देते हैं. आप लड़ेंगे तभी तो ये बनेंगे. दुनिया से यदि लड़ाईझगड़े बंद हो जाएं तो समझदार लोग कहां जाएंगे.’’

अब हमारी समझ में आ गया कि कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान कुरुक्षेत्र के मैदान में क्यों दिया था. खैर साहब, हम भागते हुए अपने पड़ोसी के पास गए, आखिर वे हमारे चाचा थे.

‘‘चाचाजी, हमें ये वकील लोग लूट लेंगे. आप हम पर दया कीजिए. आप अपना गुस्सा हम पर उतार लीजिए. हमारे सिर पर 400 जूते मार लीजिए. यदि हमारा सिर हिल जाए तो 400 और लगा लीजिए, मगर समझौता कर लीजिए. आप हमारे पिताजी के भाई हैं. हमारे लिए तो पिताजी की तरह ही हैं.’’

चाचाजी पिघल गए. उन्होंने हमारा कंधा सहलाया और बोले, ‘‘चाहता तो मैं भी यही था लेकिन डर था कि तुम लोग नहीं मानोगे. खेतखलिहान अपनी जगह पर हैं. चलो, कल ही समझौता लगा देंगे.’’

समझौता हुआ. उस की कौपी लगी. भाईसाहब बाहर आ गए. हम ने तय किया कि आज के बाद हम कचहरी के नाम से परहेज करेंगे. चार जूते खा कर भी अगर शांति से रह सके तो रहेंगे लेकिन कचहरी से बचेंगे.  

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