कहानी - बुरी आदत
मां के आंचल से हाथ पोंछने की मेरी बचपन की आदत थी. इस आदत को ले कर पिताजी हमेशा टोकते थे लेकिन ऐसा करने पर मां का चेहरा ममता से भर उठता. दिक्कत तो तब होती थी जब नौकरी के लिए परीक्षा देने के लिए बाहर जाता या कभी किसी अन्य काम से खाना खाने के बाद जब नैपकिन मिलता तो मां का पल्लू याद आ जाता. ऐसा लगता कि या तो पेट नहीं भरा या खाना ही ठीक नहीं था.?
कई दिनों के बाद जब बाहर से घर आता तो मां खाना परोसतीं और खाने के बाद नैपकिन मांगता तो मां को लगता कि उन का बेटा बदल गया है. अपनी मां से पहले जैसा प्रेम नहीं करता. मां को लगता कि मुझे बाहर की हवा लग गई है. जब मां देखतीं कि मैं ने खाना खा लिया है तो मेरे पास आ कर खड़ी हो जातीं और अपना पल्लू मेरे हाथ में थमा देतीं. मुझे अच्छा लगता. जब मैं कभीकभार भूल जाता तो मां कहतीं कि बाहर जा कर तुम्हें क्या हो जाता है. अपनी मां का पल्लू भी याद नहीं रहता. मैं तुम्हें कभी बाहर नहीं जाने दूंगी.
मां के पल्लू से मेरा विशेष लगाव, प्रेम, अपनत्व था. यह मेरी दिनचर्या का हिस्सा था. मां के न रहने पर भी मुझे खाने के बाद मां की याद आती थी. कितनी अच्छी और प्यारी थीं मेरी मां. मां ने कभी न सोचा और न ही मैं ने कि मां की साड़ी खराब होती है. यही आदत शादी के बाद भी बनी रही.
शादी के बाद पत्नी ने खाना परोसा. भोजन करने के बाद जैसे ही वह नैपकिन लेने के लिए उठी, मैं ने अपनी आदत के अनुसार उस के पल्लू से हाथ पोंछ लिए. पहले तो पत्नी ने कहा, ‘‘यह क्या है?’’
मैं ने कहा, ‘‘बचपन की आदत.’’
‘‘अब आप बच्चे नहीं रहे,’’ पत्नी ने कुछ झुंझलाते और समझाते हुए कहा, ‘‘आप शादीशुदा हैं. जिस काम के लिए नैपकिन है उस काम के लिए मेरी कीमती साड़ी खराब करने की क्या जरूरत है? फिर यह कोई अच्छी आदत नहीं है. बुरी आदतें कभी भी सुधारी जा सकती हैं.’’
पत्नी के उपदेश से बचने के लिए मैं ने सौरी कहा. पत्नी ने नैपकिन ला कर दिया. मुझे बरबस ही मां याद आ गईं. मेरी आंखें भर आईं. कहां तो मेरी मां ने कभी अपनी महंगी से महंगी साडि़यों की परवा नहीं की. मां की हर साड़ी के छोर पर मेरे हाथमुंह पोंछने के निशान लगे होते. लेकिन जब तक मैं मां के पल्लू से हाथ नहीं पोंछ लेता, मेरा भोजन करना पूर्ण नहीं होता और मां का भोजन करवाना. मेरी मां को भी अलग से लाड़ दिखाने की जरूरत नहीं पड़ी और न मुझे कभी मां की ममता का यशोगान करने की. मेरे और मां के मध्य यह क्रिया हमारे प्रेम को सार्थक कर देती.
ऐसी बहुत सी बातें और आदतें हैं. लेकिन उम्र बढ़ने के साथ बहुत सी चीजें, बातें, क्रियाकलाप छूट जाते हैं. उन्हें हम भूल जाते हैं. लेकिन मां के पल्लू वाली यह बात अब आदत में आ चुकी थी. पत्नी ने जब प्यार से खाना परोसा तो मां ही लगी लेकिन हाथ पोंछने के लिए पत्नी के पल्लू का इस्तेमाल करने पर जब पत्नी ने टोका, समझाया तो समझ में आया कि नहीं, यह पत्नी ही है. पत्नी जो पति की बुरी आदतों को सुधारती है और पति के सुधरने पर गर्व करती है.
मुझे भी लगा कि जिस काम के लिए नैपकिन बना है उस के लिए पत्नी की कीमती साड़ी क्यों खराब करें? मैं ने सबक के रूप में पत्नी की बात याद रखी और भूल से भी गलती न हो जाए, इस हेतु मैं स्वयं ही खाना खाने से पहले नैपकिन अपने पास रखने लगा. तनुश्री संपन्न परिवार से थी. पढ़ीलिखी आधुनिक महिला. वह जानती थी कि परिवार को खुश कैसे रखा जाता है, एक पत्नी का क्या दायित्व होता है. लेकिन कुछ समय से वह नारी मुक्ति संगठन की सदस्य बनने से कुछ आक्रामक स्वभाव की हो गई थी. हर बात में वह यह जरूर देखती कि उस के महिला होने के आत्मसम्मान पर चोट तो नहीं पड़ रही है. उस का किसी भी तरह से शोषण तो नहीं हो रहा है. उस के अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है. कर्तव्य केवल उस के नहीं हैं, पति के भी हैं, पति जो पुरुष भी है. शादी के 1-2 वर्ष तक तो वह अच्छी पत्नी रही. हर काम दौड़दौड़ कर खुशीखुशी किए. सब से मिलनाजुलना. हंस कर बोलना. सब का ध्यान रखना. लेकिन संगठन की सदस्य बन कर अब वह बातबात में रोकटोक, बहस करने लगी. पतिदेव चुपचुप रहने लगे.
एक बार उस ने देख लिया कि पति उन से छिप कर एक पेटी में से कुछ निकालते हैं. फिर रख कर ताला बंद कर देते हैं और चाबी न जाने कहां छिपा कर रख देते हैं. तनुश्री के मन में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा. पहले उस ने सोचा कि पति से पूछे. फिर यह सोच कर चुप हो गई कि कहीं पूछने से पति सतर्क न हो जाएं. छिप कर पता लगाना ही उचित होगा. उस ने संगठन की अध्यक्षा को यह बात बताई तो उस ने कहा, ‘‘इन मर्दों का कोई ठिकाना नहीं. हो सकता है कि किसी अन्य स्त्री का कोई चक्कर हो. कहीं उस पेटी में पहली पत्नी...तुम ने पूरी जानकारी ले कर शादी की थी न? ऐसा तो नहीं कि पहली स्त्री से तलाक हो गया हो या न रही हो. तुम से दूसरी शादी...कुछ भी हो सकता है.’’
‘‘नहीं दीदी, मेरे घर वालों ने पूरी छानबीन की थी. वे ऐसा नहीं कर सकते. इतनी बड़ी बात छिप भी कैसे सकती है,’’ तनुश्री ने उदास हो कर कहा. उस के चेहरे पर उदासी की घटाएं छा गईं.
‘‘फिर तो पक्का किसी लड़की के साथ अफेयर होगा,’’ अध्यक्षा ने कहा, ‘‘तुम पता करो. औफिस की कोई महिला है या कालोनी की. एक बार पता चल जाए तो ईंट से ईंट बजा देंगे. तुम चिंता मत करो. संगठन तुम्हारे साथ है. तुम्हें न केवल तलाक दिलवाएंगे बल्कि लंबाचौड़ा हर्जाखर्चा और साथ में उस आदमी को जेल भी भिजवाएंगे. उस के खिलाफ मोरचा निकालेंगे. कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेगा.’’
उन के चेहरे से झलक रहा था मानो किसी खूंखार भूखी शेरनी को कोई शिकार मिल गया हो.
‘‘लेकिन दीदी, मेरा घर मेरा पति, मेरा परिवार, मेरा जीवन,’’ तनुश्री ने सबकुछ लुट जाने के भाव से कहा. कहते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए.
‘‘घरपरिवार सब बाद में. पहले स्त्री का अधिकार. महिला मुक्ति ही हमारे जीवन का लक्ष्य है. महिलाओं के खिलाफ पुरुषों के अत्याचार को हम सहन नहीं करेंगे,’’ तनुश्री की उदासी देख कर अध्यक्षा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘पगली, रोती क्यों है. अभी तुम्हारी दीदी जिंदा है. बस, इतना पता कर कि उस पेटी में ऐसा क्या है जो तुम्हारा पति तुम से छिपा रहा है. साबित करने के लिए सुबूत जरूरी है.’’
तनुश्री ने घर का कोनाकोना छान मारा लेकिन उसे पेटी की चाबी कहीं नहीं मिली. उस ने ठान लिया कि दूसरे दिन दोपहर में पति के दफ्तर जाने के बाद वह ताले को तोड़ेगी और इस भेद को जान कर रहेगी. वह बीमारी का बहाना कर के पड़ी रही. पति ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? तबीयत खराब है?’’
उस ने गुस्से में कहा, ‘‘क्यों, क्या मैं आराम नहीं कर सकती. यदि मेरा काम करने का मन न हो तो भी मुझे काम करना पड़ेगा. कोई जबरदस्ती है,’’ तनुश्री का गुस्सा देख कर पति चुप हो गए. पति ने उसे अपने हाथ से खाना बना कर दिया. गुस्से में उस ने खाने से मना कर दिया, ‘‘मुझे भूख नहीं है.’’
पति ने इस के बाद कुछ न कहा. तनुश्री सोचने लगी, ‘कितना चालाक आदमी है. सामने कितना शरीफ बनता है. और पीठ पीछे न जाने क्याक्या गुल खिलाता है. उस के दिमाग में विचारों के आंधीतूफान उठते रहे. नींद आंखों से कोसों दूर थी. दिमाग में बस यही चल रहा था कि क्या होगा उस पेटी में.’
पति के दफ्तर जाते ही सब से पहले वह पेटी के पास पहुंची. उस ने पेटी में लगे ताले पर पत्थर से 3-4 प्रहार किए. ताला तो नहीं टूटा, पेटी जरूर जगह से खिसक गई. पेटी के नीचे चाबी देख कर वह चकित रह गई. इतनी चालाकी से छिपाया तभी पूरे घर में तलाशने से भी नहीं मिली. यह आदमी तो बड़ा छिपारुस्तम निकला. उस ने झट से ताला खोला. उस में एक पुरानी सी लेकिन चमकदार साड़ी निकली. कोई आ न जाए, कोई देख न ले. इस कारण उस ने साड़ी को ज्यों का त्यों उठा कर एक थैले में भर लिया. साड़ी न इस्त्री की हुई थी न ही तह कर के रखी हुई थी. अस्तव्यस्त थी.
वह साड़ी ले कर अध्यक्ष महोदया के घर पहुंची. उसे देख कर अध्यक्षा आश्चर्य से बोलीं, ‘‘अचानक कैसे? औफिस में आ जातीं.’’
‘‘दीदी, सुबूत मिल गया है. साड़ी निकली है पेटी में से,’’ तनुश्री ने लगभग रोते हुए कहा.
अध्यक्षा ने हड़बड़ा कर कहा, ‘‘अरे, रोओ मत, यह मेरा घर है. पता नहीं घर के लोग क्या सोचने लगें. तुम एककाम करो. थोड़ी देर बैठो. मैं घर के काम निबटा कर चलती हूं. चाय भी भिजवाती हूं.’’
‘‘मंगला, खाना तैयार है,’’ तभी घर से एक वृद्ध पुरुष की आवाज आई.
‘‘बस 2 मिनट,’’ अध्यक्ष महोदया का उत्तर था.
‘‘मंगला चाय बन गई मेरी,’’ एक वृद्ध स्त्री का स्वर गूंजा.
‘‘अभी लाई मांजी,’’ अध्यक्ष महोदया का स्वर था.
‘‘मंगला मेरा टिफिन तैयार है,’’ एक अधेड़ मर्दाना आवाज आई.
‘‘हां, तैयार कर रही हूं,’’ अध्यक्षा ने कहा.
‘‘कौन आया है, तुम अपने संगठन के झंझट वहीं सुलझाया करो. यह घर है तुम्हारा, औफिस नहीं,’’ अधेड़ की आवाज में कुछ तेजी थी.
‘‘अरे मेरी सहेली है,’’ मंगला अर्थात अध्यक्षा की आवाज उस के कानों में गूंजी.
‘‘क्या दुख है बेचारी को?’’ पति की आवाज व्यंग्यभरी थी.
‘‘चुप रहो, सुन लेगी,’’ अध्यक्षा की आवाज थी. स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध भड़काने वाली अपने घर में सब को खुश रख रही है. पति, सासससुर सब के आगेपीछे घूम कर हुक्म बजा रही है और... इतने में मंगला तैयार हो कर आ गई.
‘‘चलो निकलते हैं. नहीं तो घर के काम तो खत्म ही नहीं होते,’’ अध्यक्षा ने कहा.
‘‘दीदी, आप तो घर में कुछ और औफिस में कुछ और ही नजर आती हैं,’’ तनुश्री ने कहा.
‘‘अरे बहन, यह मेरा घर है. घर में घर जैसी ही रहूंगी न. घर में मैं बहू हूं, पत्नी हूं, मां हूं. अभी बच्चे नहीं आए स्कूल से. नहीं तो आ भी नहीं पाती, तुम्हारे साथ. हां, कहो, क्या सबूत मिला?’’
‘‘साड़ी,’’ तनुश्री ने धीरे से कहा.
‘‘अब देखो, खैर नहीं तुम्हारे पति की.’’
औफिस पहुंचते ही अध्यक्षा ने कहा, ‘‘दिखाओ.’’
उस ने साड़ी निकाल कर दी. अध्यक्षा ने साड़ी को पूरा फैलाया. उस में से एक कागज गिरा. तनुश्री ने उसे उठाया. अध्यक्षा ने कहा, ‘‘प्रेमपत्र होगा. पढ़ो. यह इतनी गंदी अस्तव्यस्त साड़ी.’’
अध्यक्षा ने साड़ी का गौर से मुआयना किया. उसे सूंघा. साड़ी को बहुत बारीकी से देखा. इस बीच तनुश्री पत्र पढ़ती रही. पत्र पढ़तेपढ़ते उस की आंखों से आंसू बहने लगे.
प्यारी मां,
आप तो रही नहीं. बचपन की एक आदत अभी तक नहीं छूटी आप के कारण. आप ने बताया भी नहीं कि यह गलत आदत है. आप तो कहती थीं कि भोजन परोसते वक्त पत्नी भी मां का रूप होती है. आप की बहू ने तो अपने पल्लू से हाथ पोंछने को बैड मैनर्स करार दे दिया. मैं भोजन के बाद आप की साड़ी से हाथमुंह पोंछता हूं. आदत जाती ही नहीं. लगता ही नहीं कि पेट भर गया. मन तृप्त ही नहीं होता. तनुश्री में तो मां नहीं मिली. वह आधुनिक स्त्री है. वह मेरी इस गंदी आदत के कारण अपनी कीमती साडि़यों का सत्यानाश क्यों करवाएगी. सो, मैं आप की साड़ी से आज भी हाथमुंह साफ करता हूं. मैं जानता हूं कि आप पहले की तरह ममता से भर जाती होंगी. मुझे भी लगता है कि मेरी मां मेरे सामने खड़ी है.
आप का बेटा.
अध्यक्ष महोदया ने तनुश्री को जोरजोर से रोते देखा. पत्र अपने हाथ में ले लिया. पत्र पढ़ कर वे भी सन्नाटे में आ गईं. क्याक्या न कह डाला उन्होंने. क्याक्या न सोच लिया. हां, प्रेमपत्र ही तो था. एक लाड़ले बेटे का दुनिया से विदा ले चुकी अपनी मां के नाम. वे तनुश्री को सीने से लगा कर उस के सिर को सहलाती रहीं. उन्होंने तनुश्री से माफी मांगते हुए कहा, ‘‘तनु, मुझे माफ कर दो. अपने पति की मां बन जाओ और सद्गृहस्थता को सार्थक करो. तुम्हारे पति को पत्नी के साथसाथ मां की भी जरूरत है.’’
आज जब मैं खाना खा कर नैपकिन की तरफ बढ़ा तो नैपकिन वहां नहीं था जहां मैं ने रखा था. मैं ने तनु को आवाज दी तो उस ने अपनी साड़ी का छोर पकड़ाते हुए कहा, ‘‘इस से पोंछ लो.’’
‘‘अरे, लेकिन तुम्हारी महंगी साड़ी खराब...’’
मेरा वाक्य पूरा नहीं हो पाया. तनु ने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया और आंखों में आंसू भरते हुए कहा, ‘‘आप की भावनाओं से ज्यादा कीमती नहीं है दुनिया की कोई भी साड़ी. आज से आप का नैपकिन मेरी साड़ी का पल्लू ही होगा. जिस दिन आप ने मेरे पल्लू से हाथमुंह साफ नहीं किया, मैं समझूंगी आप का स्नेह मेरे प्रति कम हो गया है.’’ तनु के चेहरे के भाव देख कर मेरे सामने मां का चेहरा घूम गया.
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