कहानी - सुख का अधिकार
जीवन की ख़ुशियां सभी को लुभाती हैं. वह सभी के लिए बराबर होती हैं, चाहे वह छोटा हो या बड़ा. उसका बेटा भी वैसी ही किसी ख़ुशी की तलाश में विदेशों की खाक छानने गया था, फिर वह अपनी ख़ुशियों से महरूम क्यों रहे? इसी सोच ने उसे अकेलेपन और रीति-रिवाज़ों के डर से मुक्त कर दिया था.
धीरे-धीरे टहलते हुए सुभद्रा आश्रम से काफ़ी दूर निकल आई थी. चिर-परिचित गलियों में ख़ुद-ब-ख़ुद मुड़ते उसके क़दम अचानक ही एक बड़ी-सी कोठी के सामने आकर ठिठक गए, जो कभी ‘लाल हवेली’ के नाम से मशहूर थी और जिसकी कभी वह इकलौती वारिस हुआ करती थी. बरसों बाद आज वह फिर से उसी हवेली के सामने खड़ी थी, पर अब वहां उसे कोई नहीं पहचानता था. अब तो उस हवेली के अधिकांश हिस्सों को तोड़कर आधुनिक मकानों में तब्दील कर दिया गया था, फिर भी वह हिस्सा अभी भी बाकी बचा था, जिसमें कभी उसका कमरा हुआ करता था. वह उस घर के सामने बने मंदिर में जा बैठी.
आस-पास लगभग सब कुछ बदल गया था. क़रीब की खाली ज़मीनों पर ऊंची-ऊंची इमारतें खड़ी हो गई थीं, पर उस मंदिर में कुछ ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ था. यहां तक कि मंदिर के चारों तरफ़ लगे स़फेद लिली के फूल भी पहले की ही तरह बेतरतीब ढंग से लगे हुए थे. तभी हवेली की तरफ़ से आती जूही और बेला से सुवासित ठंडी हवाओं का झोंका, उसके बालों को सहलाता निकल गया, जिसने मां के स्पर्श की याद ताज़ा कर दी और उसकी आंखें यूं ही भर आईं.
आज भले ही वह अपने घर के सामने परायों-सी बैठी थी, पर कभी इसके आंगन में स़िर्फ उसकी धमा-चौकड़ी ही मचती थी. यह अलग बात थी कि उस पर जितना प्यार उसकी मां न्योछावर करती थीं, उसके पापा उससे उतनी ही ज़्यादा दूरी बनाए रखते थे. इस दूरी का सबसे बड़ा कारण था उसका ‘लड़की’ होना.
हमेशा से एक बेटे की चाहत रखनेवाले उसके पापा के दिल में बेटी के लिए कोई जगह नहीं थी. यही कारण था कि वो मां का भी सम्मान नहीं करते थे, क्योंकि बेटी पैदा करनेवाली स्त्री का उनके जीवन में कोई स्थान नहीं था. उनकी एक-एक पुकार पर मां उनके आगे-पीछे दौड़ती रहतीं, फिर भी, जब भी कभी मौक़ा मिलता, अपने आग्नेय नेत्रों से वो हम दोनों मां-बेटी को झुलसाते रहते. जब वह मात्र 14 वर्ष की थी, उसकी मां को टीबी की बीमारी हो गई थी.
कभी-कभी रातभर खांसती रहतीं, पर कोई उनके पास नहीं होता. पापा ने बाहर बने कमरे में उनके रहने का इंतज़ाम करवा दिया था. घर की एक काफ़ी पुरानी बूढ़ी नौकरानी, जिस पर मां के काफ़ी एहसान थे, वही उनका ध्यान रखती, पर रात में वह अकेले ही रहती थीं. सुभद्रा को भी पापा ने सख़्त हिदायत दे रखी थी कि वहां न जाए. वह भी शायद ही कभी उधर का रुख करते, पर जब उसके पापा घर पर नहीं होते, तब सुभद्रा छुपते-छुपाते मां से मिलने जाती.
मां भी उसे दूर से ही देखकर प्रसन्न होतीं, उसे अपने पास बैठने नहीं देतीं. उन्हें लगता कहीं उनकी बेटी को भी वह बीमारी न लग जाए. मां का क्लांत शरीर और बुझा हुआ चेहरा देख उस छोटी-सी उम्र में सुभद्रा को तरह-तरह की दुश्चिंताएं घेर लेतीं. उन दिनों टीबी की दवा मिलने लगी थी, लेकिन उसके पापा उन्हें सही समय पर सही मात्रा में दवा देते ही नहीं थे. अपनी बीमारी और पति की उपेक्षा ने उन्हें पूरी तरह तोड़कर रख दिया था. बिना किसी प्यार, विश्वास और सहारे के ज़्यादा दिनों तक अपनी बीमारी से लड़ नहीं सकी थीं और जल्द ही काल के गाल में समा गईं. पिता मुक्त हो गए, पर वह मुक्त नहीं हो पाई. आज भी उसकी यादों में मां सारी रात दरवाज़ा खटखटाती हैं, अंदर आने के लिए.
मां के मरते ही बिना सुभद्रा की राय जाने 15 वर्ष की उम्र में उसके पिता ने उसकी शादी दरभंगा से दूर रांची में करवा दी. सुभद्रा की शादी के मात्र दो महीने बाद ही उन्होंने ख़ुद अपनी शादी भी रचा ली थी. पहली बार ही जब सुभद्रा मायके आई, तो उसे काफ़ी कुछ बदला-बदला-सा लगा. नई मां के आ जाने से उसे अपना घर पराया और अजनबी लगने लगा था. उसके बाद दो-तीन बार ही वह मायके जा पाई.
जैसे ही उसके मायके में उसके भाई का जन्म हुआ, पापा तो अपने वारिस के अगुआई में ऐसे व्यस्त हो गए कि अपनी अवांछित बेटी की रही-सही याद भी उनके दिल से निकल गई. उसे यह सोचकर आत्मसंतुष्टि हुई थी कि चलो पापा के दिल में बरसों से बसी बेटे की चाहत पूरी हो गई थी. लेकिन बेटा पाने का यह सुख भी वह कहां ज़्यादा दिनों तक भोग पाए थे. अचानक आए हार्ट अटैक ने उनकी जान ले ली थी.
ससुराल में उसे भौतिक सुख-सुविधा की कमी नहीं थी, पर परंपरा व रीति-रिवाज़ों के नाम पर ढेरों पाबंदियां थीं, जिसके कारण उस किशोरवय के कमज़ोर कंधों पर एकाएक ज़िम्मेदारियों का बोझ आ गया था. तरुणाई की दहलीज़ पर सबमें आज़ादी की ललक होती है, उसमें भी थी, लेकिन ज़िंदगी की शर्तों और ज़िम्मेदारियों में बंध जाने से उसके रंगीन कल्पनाओं की दुनिया ही बेरंग हो गई थी और सारे एहसासात की कब्र उसका अपना दिल ही बन गया था, क्योंकि अपने से दोगुने उम्र के जीवनसाथी के साथ उसका भावनात्मक रिश्ता जुड़ ही नहीं पाता था. उसके पति भानुप्रताप ने भी जैसे उससे विवाह माता-पिता की सेवा और घर की ज़िम्मेदारियां संभालने के लिए ही किया था. सुभद्रा के अनुरोध करने पर भी कभी उसे अपने साथ पटना नहीं लाते थे, जहां वह नौकरी करते थे.
पटना में भानुप्रताप की एक अलग ही दुनिया थी. वहां उनकी अपने हमउम्र औरत केतकी के साथ पति-पत्नी की तरह के रिश्ते थे. बस, कहनेभर को केतकी उनके घर में काम करनेवाली बाई थी. घर के सभी लोग जानते थे, पर किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था. सुभद्रा ने विरोध किया, तो प्रताड़ित हुई. मायके भेज देने की धमकियां मिलीं. मायके में हुई मां की दुर्दशा ने उसकी हिम्मत तोड़ दी और चुप ही रहने में उसने अपनी भलाई समझी.
अठारह की उम्र तक पहुंचते ही वह एक बेटे की मां भी बन गई थी. बेटे को पाकर उसने यह सोचकर राहत की सांस ली थी कि जो त्रासदी उसकी मां को झेलनी पड़ी, कम से कम उसे तो नहीं झेलनी पड़ेगी. लेकिन बेटा और बेटी के भेदभाव से परे सुभद्रा के लिए वह बच्चा उसके कलेजे का टुकड़ा था. उसकी सोच, उसका सोना-जागना सब कुछ उस बच्चे से जुड़ चुका था, पर उसके ससुरालवालों के लिए उसकी ममता का कोई मोल नहीं था, वह उस बच्चे की जन्मदात्री मात्र थी. उसके विषय में छोटे से छोटा ़फैसला लेने का अधिकार भी स़िर्फ उसके पिता, दादा और दादी का था.
छोटी-सी उम्र में ही बेटे नकुल को सुभद्रा से अलग कर बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया. वह पढ़ने में अच्छा था, इसलिए बड़ा होकर एक ऊंचे पद पर काम करने लगा. पर इकलौता वारिस होने का ग़ुरूर और अपने पापा से मिले पुरुष सत्तात्मक अवधारणा के कारण बड़े होने पर पिता की तरह ही उसे भी मां के फ़र्ज़ ही याद रहते, अधिकार कभी नहीं. हमेशा से वह चाहती थी कि उसकाबेटा स़िर्फ उच्च पद ही नहीं प्राप्त करे, बल्कि शालीन और उदार भी बने. हर रिश्ते की मर्यादा को समझे और निभाए, लेकिन वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पाई.
देखते ही देखते सुभद्रा ने जीवन के 50 बसंत पार कर लिए, पर उसके जीवन का रूटीन नहीं बदला. सुबह से शाम तक बस एक ही तरह का काम करना, सभी की सुविधाओं का ख़्याल रखना और धीरे-धीरे समय गुज़रता गया. बेटे की भी शादी हुई, जिसमें वह मूकदर्शक मात्र बनी रही.
बहू सुनंदा सूरत और सीरत दोनों से भली थी, लेकिन जल्द ही वह नकुल के साथ अपनी नौकरी पर चली गई. समय ने एक बार फिर करवट बदली. छह महीने के अंदर सास-ससुर दोनों स्वर्ग सिधार गए और पति की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. वह पूरी तरह अकेली पड़ गई थी, लेकिन इस बार बहू ने पराया खून होकर भी सुभद्रा का साथ दिया. उनकी फैमिली पेंशन फिक्स करवाकर भानु प्रताप के नाम से जितने भी पैसे थे, अपनी सासूमां के अकाउंट में डलवा दिए. सारा काम ख़त्म कर सासूमां को लेकर दिल्ली आ गई. अब वह बेटे के संरक्षण में थी, पर बेटा हमेशा उनसे एक दूरी बनाए रखता. कभी मां के मन में झांककर देखने की कोशिश ही नहीं करता कि उसकी मां क्या सोचती है. सुभद्रा के सारे सपने तो पहले ही दम तोड़ चुके थे, अब बचे-खुचे जीवन में सुख-दुख जैसे एक समान हो गया था.
तभी एक दिन नकुल ने आकर सूचना दी कि उसे कनाडा में नौकरी मिल गई है. वह अगले महीने ही सुनंदा के साथ कनाडा चला जाएगा. उसने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वहां जाकर रहने की व्यवस्था कर लेगा, तो मां को भी वहीं बुला लेगा. जल्द ही नकुल ने उन्हें वापस रांची भेजने की व्यवस्था भी कर दी.
बहू की तत्परता के कारण वह भले ही आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो गई थी, पर उसकी अवस्था उस पक्षी की तरह हो गई थी, जिसे बरसों पिंजरे में रखने के बाद स्वतंत्र कर देने पर स्वतंत्रता रास नहीं आती. खुले आकाश में स्वतंत्र रूप से उड़ना और जीना दोनों मुश्किल हो जाता है. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि बिना किसी सहारे के वह कैसे जीवन गुज़ारेगी, पर बेटे का ़फैसला मानने को विवश थी.
सुभद्रा रांची लौट आई थी. चाहकर भी वह एक झटके में सब कुछ नहीं बदल सकती थी. लेकिन उसकी यही विवशता उसकी ताक़त बन गई थी. घर के अंदर-बाहर की कठिनाइयों से जूझते जल्द ही उसने जीवन जीने का रास्ता तलाश लिया था. वरना कभी अच्छी बेटी, पत्नी और मां बनने के चक्कर में चुप रहकर और सभी रीति-रिवाज़ों में बंधकर ख़ुद को इतना कमज़ोर बना लिया था कि उसके अंदर का आत्मसम्मान और आत्माभिमान ही मर गया था, जो किसी भी व्यक्ति के जीवन जीने की पहली शर्त होती है.
अब वह इस बात से अपरिचित नहीं थी कि वह अपने जीवन में पिता, पति या पुत्र जिसके भी आश्रय में रही, जिन पर भी भरोसा किया, जिन्हें भी उसने अपने सुखों का आधार माना, उन्होंने ही उसे आहत किया. फिर भी वह अपने बेटे के साथ ही अपनी ख़ुशियां तलाशने की ग़लती दोहरा रही थी, ठीक वैसे ही, जैसे हम सभी जानते हैं कि मृत्यु अवश्यंभावी है, फिर भी उसके तथ्य को जानकर भी अनजान बने रहते हैं.
बेटे के साथ रहने से खाने-रहने के अलावा कौन-सा संरक्षण पाती? अवांछित-सी, सहमी-सहमी, यहां-वहां डोलते-फिरती और एक दिन अपने आधे-अधूरे सपनों को दिल में दबाए परलोक सिधार जाती. सच पूछो तो अभी तक किसी ने अपने जीवन में उसके अस्तित्व को माना ही नहीं. पिता ने अपनी दूसरी शादी की लालसा में मां के मरते ही न उसकी उम्र का ख़्याल किया, न उसके भविष्य का और चटपट ब्याह कर दिया.
पति ने स़िर्फ वंश-वृद्धि की लालसा में वस्तु की तरह उसे दान में पा लिया और ख़ुद दूसरी स्त्री के आकर्षण में फंसा, बिना किसी अपराध के सुभद्रा को प्रताड़ित और दंडित करता रहा. उसकी एकमात्र संतान को उसके विरुद्ध खड़ा कर दिया. बेटे के दिलो-दिमाग़ में मां के प्रति विष भरकर उसके साथ कोई भावनात्मक जुड़ाव रहने ही नहीं दिया. इसलिए बेटे ने हमेशा मां की अवहेलना की और अब अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए उसे अकेला छोड़ गया. जिस बच्चे की एक मुस्कान के लिए वह ज़मीन-आसमान एक कर देती थी, उसी के जीवन में आज वह अस्तित्व विहीन है.
जीवन की ख़ुशियां सभी को लुभाती हैं. वह सभी के लिए बराबर होती हैं, चाहे वह छोटा हो या बड़ा. उसका बेटा भी वैसी ही किसी ख़ुशी की तलाश में विदेशों की खाक छानने गया था, फिर वह अपनी ख़ुशियों से महरूम क्यों रहे? इसी सोच ने उसे अकेलेपन और रीति-रिवाज़ों के डर से मुक्त कर दिया था. ज़िंदगी का इतना लंबा अरसा उसने मोहताजों की तरह गुज़ारा था, पर अब तो उसके पास अपना पैसा था और साथ ही थी उसे ख़र्च करने की पूरी आज़ादी. अपने मन का खाती थी, अपने मन का पहनती थी. जिसको जो देना-लेना चाहती, अपनी मर्ज़ी से करती. कहीं कोई प्रतिबंध नहीं. उसकी जिजीविषा मज़बूत हो रही थी. अपनी ख़ुशियों और शौक़ को जो बचपन से अब तक पूरे नहीं हो पाए थे, मन के छुपे कोने से खोजकर तलाशती और उन्हें पूरा करती. कुछ ही दिनों में घर के कोने-कोने में उसकी पसंद की छाप नज़र आने लगी. एक लंबे दर्द और पीड़ाभरी ज़िंदगी के बाद इस परिवर्तन ने उसके जीवन में ठहराव ला दिया था. सुभद्रा एक एनजीओ से जुड़ गई थी, जो उन बुज़ुर्गों के लिए काम करती थी, जिनके बच्चे उनकी आर्थिक और भावनात्मक देखभाल नहीं करते थे और ओल्डएज होम में भेज देते थे, जहां उन्हें उनकी ही उम्र के लोगों के बीच घर-सा माहौल मिलता. उन लोगों के साथ मिलकर सुभद्रा को अपने ही जैसे अपने ही बच्चों द्वारा ठुकराए गए लोगों की आर्थिक और भावनात्मक मदद करना अच्छा लगने लगा था. अब उम्र के इस पड़ाव पर अपने रचनात्मक कार्यों से दूसरों की सहायता कर वह ज़्यादा संतुष्ट थी. एक साल में ही आस-पड़ोस में उसकी अच्छी पहचान बन गई थी. लोग उसका सम्मान करते और उसका ख़्याल रखते थे.
बहू का भी फोन आता रहता. साथ में बुलाने का आश्वासन भी. फिर एक दिन बहू का बुलावा आ गया, लेकिन वह यह नहीं जानती थी कि यहां बहुत कुछ बदल गया है. उसकी सासूमां भले ही अकेली थी, पर आश्रित नहीं. एक बार फिर किसी रिश्ते में बंधकर अपनी अस्मिता को खोना नहीं चाहती थी. अब वह पहलेवाली दबी-सिकुड़ी सुभद्रा नहीं थी. किसी रिश्ते में बंधकर अपनी अस्मिता दोबारा नहीं खोना चाहती थी, वह दृढ़ता से बोली, “बहू, अगर कोई ऐसा काम आ जाए, जहां तुम दोनों को मेरी ज़रूरत पड़े, तो मैं ज़रूर आऊंगी और अपने सामर्थ्य भर तुम दोनों की सहायता करूंगी, पर आश्रय पाने के लिए नहीं आऊंगी, क्योंकि मैंने अपनी ज़िंदगी का मुक़ाम पा लिया है. अब उसी तरफ़ बढ़ना है.”
बहू को समझते देर नहीं लगी कि सासूमां ने अपनी आत्मा पर बचपन से लादे हुए बोझ को उतार फेंका है. यही उनके जीवन को सार्थक बनाएगा. “ठीक है मां… लेकिन एक बात हमेशा याद रखिएगा कि आप अकेली नहीं हैं, जब भी आपको ज़रूरत होगी, आपका बेटा आपके साथ हो न हो, आपकी बहू आपके साथ होगी.”
बहू की बातों ने उसे एक नया बल दिया, तब से अपने चुने हुए रास्ते पर निर्विघ्न बढ़ती जा रही थी. आज भी वह एक वृद्धाश्रम के उद्घाटन के सिलसिले में दरभंगा आई थी, तो अपने मायके की याद उसे यहां तक खींच लाई और स्मृतियों के भाले उसे लहूलुहान करने लगे थे.
शाम गहराने लगी, तो वह चौंककर उठ खड़ी हुई. अपने मायके की इमारत को अंतिम बार भरपूर दृष्टि से देख सामने जाते एक रिक्शे को रोककर बैठ गई. क्या करती उस मकान में जाकर जहां किसी को उसकी याद तक नहीं.
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