कहानी - बाबुल का आंगन
शादी के पंद्रह वर्ष बीत जाने पर भी शालिनी को अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं हुआ. केशव के परिवारवालों ने उसे हमेशा सम्मान दिया. उसके दोनों बच्चे मसूरी में उसके देवर शेखर की देख-रेख में पढ़ रहे थे. उसके जीवन में सब कुछ ठीक था, फिर भी मन के एक कोने में अपनों को दुखी करने का अपराधबोध जब तब तक्षक की तरह फन उठा उसके मन को डंसने लगता.
केशव के ऑफ़िस जाने के बाद शालिनी बाकी बचे कामों को पूरा करने में ही लगी थी कि अचानक फ़ोन की घंटी बज उठी. फ़ोन उठाते ही उधर से केशव की चहकती हुई आवाज़ सुनाई दी, “तुम्हारे लिए एक बहुत बड़ी ख़ुशख़बरी है. आज से ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय…’ सुनने के तुम्हारे दिन लद गए. तुम्हारा बरसों का बनवास ख़त्म हो गया और वह चिर-प्रतीक्षित न्योता आ गया, जिसका तुम्हें पूरे पंद्रह बरसों से इंतज़ार था.”
“यूं पहेलियां मत बुझाइए, साफ़-साफ़ बताइए कि बात क्या है?”
“तुम्हारे हिटलर विष्णु भैया, जिन्होंने क़सम खाई थी कि न कभी तुम्हारी शक्ल देखेंगे और न अपने घर की देहरी लांघने देंगे, आज उन्होंने अपनी बेटी अनन्या की शादी में आने के लिए कार्ड और उसके साथ तुम्हें मनाने के लिए एक पत्र भी भेजा है. शायद उन्हें फ़्लैट का पता मालूम नहीं था, इसलिए मेरे ऑफ़िस के पते पर यह पत्र आया है.”
केशव की बातें सुन हतप्रभ शालिनी के आश्चर्य की सीमा न रही. स्त्री के लिए उसका मायका उसके जीवन का एक ऐसा हिस्सा होता है, जिसे वह कभी भुला नहीं पाती. आज मायके से संदेशा पा, उसका मन चंचल पक्षी बन अतीत की गलियों में विचरने लगा.
उसके पापा आशुतोष माथुर की गिनती शहर के जाने-माने वकीलों में होती थी. मां एक सीधी-सादी घरेलू महिला थी. भाई -बहनों में सबसे बड़े थे विष्णु भैया, उसके बाद शैल दी, फिर सोनाक्षी दी और सबसे छोटी वह ख़ुद थी. चारों भाई-बहनों के बीच अटूट प्यार था. लेकिन अनुशासन प्रिय विष्णु भैया से तीनों बहनें जितना प्यार करती थीं, उतना ही डरती भी थीं. फिर भी आड़े व़क़्त पर हमेशा विष्णु भैया ही काम आते. चाहे पापा के कोप से बचना हो या फिर अपनी पसंद की कोई चीज़ लेनी हो. तीनों बहनें मां की जगह भैया के पास ही भागी चली जाती थीं.
इसी तरह अपना सुख-दुख, आक्रोश और आवेग बांटते दिन गुज़रते रहे और वे सब भी बचपन लांघकर जवानी के देहरी पर आ खड़े हुए. पापा ने शैल दी की शादी तय कर दी. साधारण क़द-काठी और शक्ल-सूरत वाले अरविंद जीजाजी, रांची विश्वविद्यालय में फिज़िक्स पढ़ाते थे. रांची में उनका हवेलीनुमा मकान और पद-प्रतिष्ठा को देख पापा ने झट से उनके साथ शैल दी की शादी तय कर दी थी, लेकिन शादी के बाद जब भी शैल दी ससुराल से आतीं, उनकी बड़ी-बड़ी आंखों में एक अजीब-सी उदासी और मायूसी नज़र आती, जिसे वे बेवजह ही हंसी में छुपाती रहतीं.
इसी दौरान एक ट्रेनिंग के सिलसिले में शालिनी को रांची जाना पड़ा. यह सोचकर वह बेहद ख़ुश थी कि शैल दी के साथ ढेर सारी बातें और मस्ती करने का मौक़ा मिलेगा, लेकिन वहां पहुंचकर उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. उसे अब जाकर एहसास हुआ था कि शैल दी के चेहरे की रौनक और आंखों की चंचलता क्यों ग़ायब हो गई? अरविंद जीजाजी जैसा नीरस और क्रोधी व्यक्ति उसने पहले कभी नहीं देखा था. हर समय शैल दी उस चिड़चिड़े आदमी के इशारों पर नाचती रहतीं, फिर भी उन्हें पत्नी में कोई गुण ही नज़र नहीं आता, बस कमियां ही कमियां निकालते रहते. लेकिन शैल दी की सहनशक्ति का जवाब नहीं था, जो चुपचाप सब सुनती रहतीं.
जिस दिन उसे पटना लौटना था, शैल दी उसे बार-बार समझाती रहीं कि मम्मी-पापा को कुछ मत बोलना. उनकी बातें सुनकर वह झुंझला पड़ी थी, “दी, आपने तो आज्ञाकारी बेटी बनने की हद पार दी. आपका यूं घुट-घुट कर जीना मेरी आत्मा को कम छलनी नहीं करता है. कितना अच्छा होता अगर आप राहुल के लिए अपने हृदय के द्वार खोल देतीं. चौंकिए मत, क्या मैं नहीं जानती कि आपकी सहेली हेमा का देवर राहुल आप पर जान छिड़कता था? आप भी उसे कम प्यार नहीं करती थीं, फिर भी उसे अपने आसपास भी फटकने नहीं दिया. क्या दोष था राहुल का? यही कि वह हमारी जाति का नहीं था? पर आपको इस बात की ज़्यादा चिंता थी कि मम्मी-पापा की इ़ज़्ज़त पर कोई आंच न आए. मैं तो कहती हूं अगर आप राहुल के साथ भाग जातीं, तो कौन-सा आसमान टूट पड़ता? कम से कम आप तो चैन से रहतीं.”
शैल दी ने बढ़कर झट से अपना हाथ उसके मुंह पर रख दिया था, पर उनकी आंखें भर आई थीं. टूटे सपनों का दर्द जैसे उनकी आंखों से पिघल रहा हो.
हमेशा से महत्वाकांक्षी रही सोनाक्षी दी की शादी पापा ने काफ़ी ऊंचे खानदान में की थी. प्रतीक जीजाजी शहर के बड़े बिज़नेसमैन थे और इकलौती संतान थे. इस रिश्ते से सभी लोग बेहद ख़ुश थे. सोनाक्षी दी की सास कलावती भी सुंदर, संस्कारी और पढ़ी-लिखी बहू पाकर निहाल थी, लेकिन सोनाक्षी दी ने जब एक के बाद एक दो बेटियों को जन्म दिया, तो उनकी सासू मां का रवैया ही बदल गया, क्योंकि वंश चलाने के लिए उन्हें बेटा चाहिए था. फिर शुरू हुआ एक के बाद एक गर्भपात का सिलसिला. किसी को भी न उनके जर्जर होते शरीर का ख़्याल था, न ही छलनी होते दिल का. कभी समझौता नहीं करनेवाली सोनाक्षी दी की ज़िंदगी ही समझौता बन गई थी. कई गर्भपात के बाद जब बेटा हुआ, तो उसे संभालने की शक्ति उनमें नहीं बची थी. उनके बेटे को तो उनकी सासू मां ने संभाल लिया, लेकिन वे ख़ुद एनीमिया के साथ मलेरिया का प्रहार झेल नहीं सकीं और अपने नवजात शिशु को छोड़ पंचतत्व में विलीन हो गईं.
दोनों बहनों के दारुण दुख ने शालिनी का हृदय तार-तार कर दिया और उसने शादी न करने का फैसला कर लिया. घर के लोग समझाते रहे, पर वह अपनी ज़िद पर अड़ी थी. एम.एससी. करने के बाद वह रिसर्च में पूरी तरह डूब गई. वहीं उसकी मुलाक़ात केशव से हुई. निश्छल मन का केशव काफ़ी सुलझा हुआ इंसान था. शालिनी की हर तरह की उलझन को सुलझाते-सुलझाते वह ख़ुद ही उसके प्यार में उलझता चला गया, जिसका आभास शालिनी को भी जल्द ही हो गया. केशव के प्यार और निष्ठा ने शालिनी के शादी न करने के फैसले को यह जानते हुए भी बदल डाला कि केशव विजातीय है.
केशव से शादी करने के उसके फैसले की जानकारी होते ही घर में जैसे भूचाल आ गया. पापा से ज़्यादा तो विष्णु भैया तिलमिला उठे थे, “हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी, जो इस शादी के लिए इजाज़त मांगने आ गई? अगर तुमने केशव से शादी करने की बात भी सोची, तो तुम्हारी जान ले लूंगा.”
मजबूर होकर शालिनी और केशव ने कोर्ट में शादी कर ली और उसके साथ ही मायके से उसका रिश्ता हमेशा के लिए ख़त्म हो गया. कभी वह भैया की सबसे लाड़ली थी, लेकिन वही भैया उसके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण फैसले में उसका साथ देने की बजाय दुश्मनों-सा व्यवहार कर रहे थे. न पहले हुई दोनों शादियों से सीख ली, न अपनी छोटी बहन के मन को समझने की कोशिश ही की. पूरे परिवार में एक मां ही थीं, जो स़िर्फ इतना जानकर कि उसकी बेटी सुखी दांपत्य जीवन जी रही है, इस शादी से पूरी तरह संतुष्ट थीं.
शादी के पंद्रह वर्ष बीत जाने पर भी शालिनी को अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं हुआ. केशव के परिवारवालों ने उसे हमेशा मान-सम्मान दिया. उसके दोनों बच्चे मसूरी में उसके देवर शेखर की देख-रेख में पढ़ रहे थे. उसके जीवन में सब कुछ ठीक था, फिर भी मन के एक कोने में अपनों को दुखी करने का अपराधबोध जब तब तक्षक की तरह फन उठा उसकेे मन को डंसने लगता.
तभी कॉलबेल की आवाज़ सुन उसके भटकते मन पर लगाम लगी. वह दरवाज़े की तरफ़ लपकी. केशव ने अंदर आते ही मुस्कुराते हुए उसके हाथों में लिफ़ाफ़ा थमा दिया. वह लिफ़ाफ़ा थामे बेडरूम में आ गई. केशव से चाय तक पूछने का उसे होश नहीं रहा, बस जल्दी से पत्र खोल पढ़ने बैठ गई.
समझ में नहीं आता किस मुंह से तुम्हें आशीर्वाद दे रहा हूं. जिस समय तुम्हारे सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ रख, तुम्हें समाज के कुटिल कटाक्ष से बचाना चाहिए था, उस समय मैं ख़ुद तुम्हारे विरुद्ध विषमन कर अपना चेहरा उज्ज्वल कर रहा था. मेेरे ही कारण तुम अपने ही घर में पराई हो गई. कई अपमान व दर्द झेले, अगर आज तुम मुझे क्षमा न भी करो, तो मैं तुम्हें दोष नहीं दूंगा.
मां ने तो वैसे भी तुम्हें कभी दोषी नहीं माना. मां के जाने के बाद मैंने पापा की आंखों में भी पल-पल तुम्हारा इंतज़ार देखा. फिर भी मम्मी-पापा ने अपने बेटे और अपने बुढ़ापे के एकमात्र सहारे का कभी विरोध करने का साहस नहीं किया. कहते हैं, जो किसी से नहीं हारता, वो अपनी ही संतान से हार जाता है.
मम्मी-पापा के बाद अपनी ही संतान से हारने की बारी मेरी थी. मेरी बेटी अनन्या ने मुझे लाकर उसी दो राहे पर खड़ा कर दिया, जहां लाकर कभी तुमने हम सबको खड़ा किया था. उसने तो साफ़-साफ़ यह भी कह दिया कि अगर मैं बदलते समय के साथ नहीं बदलूंगा, तो अकेला रह जाऊंगा. कभी बड़ी निष्ठुरता से अपनी बहन का त्याग करनेवाला भाई, एक पिता के रूप में अपनी ही बेटी के आगे विवश हो गया. जब उसने मेरी रूढ़ीवादी सोच की धज्जियां उड़ा दीं, तब मेरी समझ में आया कि मेरे हाथों कितना बड़ा अन्याय हो गया. अब अक्सर ही मां की कातर दृष्टि की याद मुझे सहमा जाती है.
इस पत्र के साथ अनन्या की शादी का कार्ड भी है. अगर तुम और केशव मुझे माफ़ कर सको, तो सारी प्रताड़ना, अपमान और उपेक्षा को भुला अपने पूरे परिवार के साथ अनन्या की शादी में अवश्य आओ. अगर माफ़ ना भी कर सको, तो भी पापा की प्रतीक्षा करती आंखों का ख़्याल करके ज़रूर आओ.
तुम्हारे इंतज़ार में,
तुम्हारे भैया
शादी के कार्ड पर फ़ोन नंबर लिखा था. शालिनी के हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद नंबर डायल करने लगे, “हैलो…” भैया की आवाज़ थी. सुनते ही शालिनी की ज़ुबान जैसे तालू से चिपक गई, लेकिन भैया उसकी चुप्पी से ही ताड़ गए, “कौन? क्या… शालिनी?”
“हां.” मुश्किल से एक शब्द निकल पाया.
“क्या तुमने मुझे माफ़…”
“ये क्या भैया? भाई-बहन के बीच माफ़ी जैसे शब्द कहां से आ गए? ऐसा बोलकर एक बार फिर आपने मुझे पराया कर दिया. मेरे भैया मुझसे माफ़ी मांगें, यह तो मुझे कभी भी मंज़ूर नहीं होगा. आप तो हमेशा डांटते हुए ही अच्छे लगते हैं. आज भी आप मुझे डांटकर अधिकार से बुलाइए, देखिए मैं कैसे सिर के बल दौड़ी चली आती हूं.”
तभी उधर से भैया की आवाज़ आई, “ज़्यादा तीन-पांच मत कर, जल्द से जल्द पहुंच. ढेर सारे काम पड़े हैं.” भैया की मीठी डांट सुन, आंसुओं के सैलाब के बीच भी शालिनी हंस पड़ी.
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